Sunday 8 April 2012

तीन दशक बाद भी पहचान के लिए मोहताज क्यों है उत्तराखंडी सिनेमा
 हिलीवुड की फिल्में हैं मुंबईया फिल्मों की बी कॉपी!!!!

हरीश लखेड़ा
यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के वितरण समारोह में लगातार तीसरे साल जाने का मौका मिला। इस संस्था की इस बेहतरीन कोशिश के लिए बधाई, लेकिन समारोह के बाद यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिरकार उत्तराखंडी  सिनेमा तीन दशक बाद भी अपनी पहचान के लिए माोहताज क्यों है। देश-दुनिया तो दूर खुद उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग से भी यह सिनेमा आज भी बहुत दूर है।
गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी गीतों की सीडी-वीसीडी तो घर-घर पहुंच चुकी हैं, लेकिन सिनेमा नहीं। शनिवार को मित्र मदन मोहन डुकलाण के फोन के बाद फिक्की ऑडिटारियम में यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड वितरण समारोह में कुछ समय तक रहा। इससे पहले एसियन विलेज व एयरफोर्स के ऑडिटारियम के कार्यक्रमों में भी शामिल हो चुका था। यह देखकर मन को बड़ा दुख हुआ कि इन कार्यक्रमों में उत्तराखंडी वुद्धिजीवी वर्ग देखने को नहीं मिला। एक कार्यक्रम के सह आयोजक तो एक नामी बिल्डर थे। यंग उत्तराखंड की मंशा पर मैं कोई उंगली नहीं उठा रहा हूं, लेकिन यह तो सोचना ही होगा कि आखिरकार  हम इस तरह के कार्यक्रमों के लिए किस तरह के लोगों के कंधों का सहारा ले रहे हैं।
यह भी सोचना होगा कि मशहूर गायक नरेंद्र सिंह नेगी के बाद दूसरी पीढ़ी क्यों तैयार नहीं हो पा रही है। नेगी जी या एक-दो को छोड़ दें तो बाकी गायक जो कुछ परोस रहे हैं, क्या हम उसे अपना कह सकते हैं।? नहीं। वह हमारा गीत या संगीत नहीं है। इसलि, सोचना होगा कि हमारी संगीत किस लाइन पर जा रहा है। सुना है कि उत्तराखंडी सिनेमा का नामकरण हॉलीबुड और बॉलीवुड की तर्ज पर हिलीवुड कर लिया गया है, लेकिन  तीन दशक बाद भी यह सिनेमा अपनी पहचान के लिए मोहताज है। मदन बता रहे थे कि हिलीवुड सिनेमा लगभग ४० करोड़ सालाना के टर्न ओवर तक पहुंच चुका है और सालाना  लगभग एक दर्जन फिल्में भी बन रही हैं। फिल्मों से ज्यादा गढ़वाली, कुमाउंनी, जौनसारी आदि में सीडी व एलबम ज्यादा बन रहे हैं। हालांकि पायरेसी का काल साया इन फिल्मोंं पर भी मंडराता रहा पड़ा है, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखंडी समाज के उच्च व बुद्धिजीवी वर्ग में यह सिनेमा आज तक अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा है। वर्ष १९८३ में पारासर गौड ने गढ़वाली में  ‘जग्वाल ’ फिल्म बनाकर उत्तत्तराखंडी सिनेमा की शुरुआत की,इसके बाद फिल्में आती और जाती रहीं,लेकिन वे अपना असर नहीं छोड़ पाईं।
दरअसल, इन फिल्मों में जो कुछ दिखाया जाता है वह ऐसा नहीं लगता कि हमारा है, इनसे अपनाअप नहीं दिखता है। जिस तरह से बंगाली सिनेमा ने अपनी धाक कायम की, उत्तराखंडी सिनेमा ऐसा कुछ नहीं कर पाया।
कहीं ऐसा तो नहीं कि  उत्तराखंडी सिनेमा इंडस्टरी से जुड़े लोग ही नहीं चाहते कि उनकी कमियों को सामने लाए और वे इन फिल्मों को उच्च वर्ग या वुद्धिजीवी वर्ग से दूर रखते हैं।
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