Wednesday 9 October 2013

हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी


हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी
-जरूरी है हिमालयी पर्यटन पर नियंत्रण
-------हरीश लखेड़ा

उत्तराखंड की केदारघाटी की त्रासदी की चर्चा में हिमालय बहुत पीछे छूट गया है। केदारघाटी की त्रासदी से पैदा जख्मों को भरने में तो लंबा समय लगेगा, लेकिन इससे मिले संदेश को हम देख नहीं पा रहे  हैं।  वह यह कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया कि हजारों खिलते चेहरे पलक झपकते ही शवों में बदल गये। इस त्रासदी में चर्चा सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित रह गइ है, जबकि  यह मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है, बल्कि पूरे हिमालय का है। 
उस हिमालय का, जिससे निकली गंगा-यमुना जैसे नदियां देश की लगभग ४० करोड़ आबादी की प्यास बुझाती हैं, खेतों में खड़ी फसलों के लिए पानी उपलब्ध करती हैं। वह हिमालय, जो साइबेरिया के मैदानों से आने वाली हड्डियों तक को गला देने वाली ठंडी हवाओं से हमें बचाता है। अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए कुख्यात चीन जैसे ड्रैगन को रोकता है। वह हिमालय जो  सदियों से आध्यात्मिक तौर पर भारत समेत पूरे विश्व को आकर्षित करता रहा है। जिस की मिट्टी आज भी देवभूमि कहलाती है, लेकिन दुखद यह है कि अब हमने उसी हिमालयी क्षेत्र को दोहन का संसाधन मात्र मान लिया है। हिमालय को तो इस त्रासदी से बहुत पहले सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से लेकर पर्यटन और मनोरंजन के लिए हिमालय को चीरकर बनाए जा रहे होटलों व इमारतों ने जख्मी करना शुरू कर दिया था।
इस त्रीसदी में मारे गये लोगों की संख्या जो भी हो,लेकिन सवाल यह है कि एक ही समय पर आखिरकार लगभग एक लाख लोग उत्तराखंड की ऊपरी पहाडिय़ों में कैसे जुट गये। क्या किसी ने सोचा  है कि हिमालयी क्षेत्रों में हर साल करोड़ों लोगों की बेतहाशा भीड़ क्यों और क्या करने जा रही है। मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक यही हाल है।  हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में ही बीते साल लगभग पांच करोड़ सैलानी पहुंचे थे। इनमें धार्मिक और सामान्य दोनों तरह के पर्यटक शामिल हैं। अकेले उत्तराखंड में ही २.३१ करोड़ और हिमाचल प्रदेश में १.३२ करोड़ पर्यटक गये। जबकि पर्यावरण प्रेमी भी लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही मानव गतिविधियां ग्लेशियरों के लिए खतरा हैं। पर्यावरण व वन मंत्रालय संभालते हुए जयराम रमेश भी लगातार कहते रहे कि ग्लेशियरों को बचाना है तो हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्यूलेट यानी नियंत्रित करना होगा। उन्होंने हिमालयी राज्यों के इसलिए बाकायदा दिशा-निर्देश भी दिये थे।
जयराम से लगभग १७ साल पहले भी यह बात डा. नीतीश सेन कमेटी ने भी कही थी। तब कश्मीर घाटी में बाबा अमरनाथ यात्रा के दौरान आई त्रासदी के कारण ३०० तीर्थ यात्री मारे गये थे। तब के प्रधानमंत्री एचडी देवगौैडा  की गठित सेन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्युलेट करने की जरुरत है। हालांकि धार्मिक चश्मा पहने लोगों की दलील होती है कि अपने ही देश में धाॢमक स्थलों में जाने पर रोक लगाना गलत है। उन्हें हिमालयी चश्मा पहनने की भी जरूरत है। सवाल किसी यात्रा पर रोक लगाने का नहीं है,सवाल सीमित संख्या में लोगों को भेजने का है। स्विट्जरलैंड का दौरा करने वाले लोग बता सकते हैं कि वहां एल्पस पर्वत जाने के लिए हर साल कोटा तय होता है और तय कोटे से ज्यादा एक भी आदमी नहीं जा सकता है। सेन कमेटी की रिपोर्ट का यह नतीजा हुआ कि अमरनाथ यात्रा तो कुछ हद तक नियंत्रित हो गई लेकिन उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में प्रदेश सरकार को तो यह भी जानकारी नहीं है कि वहां आपदा के दिन कितने लोग मौजूद थे।
चारधाम यात्रा के लिए हिंदू मान्यता रही है कि इसे जीवन के अंतिम पड़ाव में किया जाता है, क्योंकि पांडव भी अपनी अंतिम यात्रा में इसी राह से हिमालय गये थे, लेकिन आज शहरों से लोग हनीमून मनाने भी बदरीनाथ-केदारनााथ धाम चले जा रहे है। चूंकि केदारनाथ यात्रा धार्मिक यात्रा है, तो इसके धार्मिक पहलू का जिक्र करना जरूरी है। वे वहां कभी शांत नहीं रहे। धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव के केदारनाथ स्वरूप को बेहद  हटी माना जाता है। प्रकृति के हिसाब से भी हिमालयी क्षेत्र में धरती के नीचे आज भी उथल-पुथल हो रही है। हिमालयी प्लेट हर साल तिब्बत प्लेट की तरफ खिसक रही है। धरती के सबसे नये पहाड़ हिमालयी क्षेत्र में धरती भी अशांत है। हटी स्वरूप में शिव ने पांडवों को केदारनाथ मेें दर्शन नहीं दिये। पौराणिक कथा है कि कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध जीतने के बाद  पांडवों को इस बात पर ग्लानि होने लगी कि उन्होंने अपने ही बंधुओं की हत्या कर दी। प्रायश्चित करने के लिए वे भगवान शिव के दर्शन करने काशी गये। लेकिन भोलेनाथ ने उन्हें दर्शन नहीं दिये। शिव वहां से केदारनाथ चले गये। पांडव उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गये। पांडवों से छुपने के लिए शिव ने भैसा का रूप धर लिया, लेकिन भीम ने उन्हें पहचान लिया और पकडऩे की कोशिश की। इस पर शिव धरती में समाने लगे। जब तक भीम पकड़ते शिव शिला का रूप ले चुके थे और मात्र पिछला हिस्सा और पूछ ही रह पाई। बाद में पिथौरागढ़ के फलकेश्वर में उनकी पीठ और नेपाल के पशुपतिनाथ में मुहं प्रकट हुआ। इस कहानी का धार्मिक संदेश है साफ है कि हनीमून या सैर सपाटे के लिए केदारघाटी आने वालों को शिव के इस हटी व रौद्र रूप से रूबरू होने के लिए तैयार रहना ही होगा।  
शिव उत्तराखंडी जीवन में हर पहलू में व्यापत हैं। वहां शादी ब्याह में कृष्ण के नहीं बल्कि शिव के गति जाए जाते हैं। केदार का अर्थ है क्यारी यानी वहां के सीढ़ीनुमा खेत। केदारनाथ वहां क्यारियों का देवता यानी मिट्टी का देवता भी हैं, लेकिन अपने इस ईष्ट देव के धाम को तबाह करने में उत्तराखंडी भी पीछे नहीं हैं। अब तो वहां उनकी अपनी सरकार है। इसके बावजूद मंदाकिनी की धारा की राह में भी बड़ी इमारतें बन गईं। पहाड़ को चीर कर होटल बनते चल गये। यह सब नेताओं-अफसरों और बिल्डरों की मिली भगत से हुआ है। किसी ने भी हिमालय की ङ्क्षचता नहीं की। जबकि उत्तराखंडियों से ज्यादा  कर्नाटक मूल के जयराम रमेश ज्यादा चिंतित दिखते थे। जयराम ने पर्यावरण व वन मंत्री रहते हुए मुख्यमंत्रियों को दिशा-निर्देश देकर कहा था कि पहाड़ों पर सैलानियों की लगातर बढ़ती भीड़ ने हिमालयी ग्लेशियरों को भारी खतरा पैदा कर दिया है। इन निर्देशों में साफ तौर पर कहा गया था कि हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों, गंगोत्री जैसे ग्लेशियरों तथा वन अभयारण्यों में सीमित संख्या में ही पर्यटक भेजे जाने चाहिए।  ग्लेशियरों के पास प्लास्टिक समेत सभी कचरा एकत्रित करने के पुख्ता इंतजाम करने को कहा गया था। 
दूसरी तरफ हिमालयी राज्यों की स्थिति यह यह कि वे देसी-विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए नई-नई स्कीमों का ऐलान तो करते रहते है,लेकिन उस हिसाब से मजबूत बुनियादी ढांचा तैयार नहीं करते हैं। जबकि यह बात भी सामने आ चुकी है कि  ग्रीन हाउस गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन से हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ रही है। पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कह चुकी है कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में वर्ष 1970 की तुलना में वर्ष 2030 तक औसत तापमान 1.7 से 2.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यह बात सभी जानते हैं कि ग्लेशियरों के पूरी तरह से समाप्त हो जाने से बारामासी नदियों में पानी नहीं होगा। नदियां सूख जाएंगी। यदि ग्लेशियर नहीं रहे तो फिर हिमालय भी नहीं बचेगा। इससे गंगा-यमुना समेत सभी हिमालयी नदियां भी एक दिन सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर भला हम और हमारी सभ्यता  कैसे बची रहेगी। 
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