Sunday 23 February 2014


और तुम खामोश हो गई----

हम तो चाहते थे
तुम टकराती रहो किनारों से किनारों से
गरजती रहो  संमदर की लहरों की तरह
 गाती रहो गीत पहाड़ी नदी की तरह
गुनगुनाती रहो झरनों की तरह
पर तुम तो मैदानों में गंगा की तरह 
चुप हो गई
खामोश हो गई

--हम तो चाहते थे
उड़ती रहो, उड़ती रहो
तुम तितलियां की तरह बागवां में 
तुम्हारे सतरंगी पंखों को देखती रहे दुनिया
पर तुम तो किसी के कैनवास के रंगों में उतरकर
चित्र बन कर दीवारों पर टंग गई
और खामोश हो गई
--हम तो चाहते थे
तुम्हारे नयनों के गहरे समंदर में झांकना
झांककर सपने देखना
पर तुमने तो  पलकें ही बंद कर दीं
और खामोश हो गई
इससे तो अच्छी हैं
वो आपस में लड़ती चिडिय़ां
चहकती चिडिय़ां  कूदती, फुदकती चिडिय़ा
कम से कम वो आप की तरह
 खामोश तो नहीं होती
वो  प्यारी चिडिय़ा

(23,फरवरी, 2014. नई दिल्ली)








1 comment:

  1. बहुत सुन्दर ,नायाब भावों से सुसज्जित एक उन्मुक्त रचना के लिये हार्दिक बधाई भाईसाहब ,सादर नमस्कार |

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