KAFAL PAKO=काफल पाको
Sunday, 23 February 2014
हम तो चाहते थे
तुम टकराती रहो किनारों से किनारों से
गरजती रहो संमदर की लहरों की तरह
गाती रहो गीत पहाड़ी नदी की तरह
गुनगुनाती रहो झरनों की तरह
पर तुम तो मैदानों में गंगा की तरह
चुप हो गई
खामोश हो गई
--हम तो चाहते थे
उड़ती रहो, उड़ती रहो
तुम तितलियां की तरह बागवां में
तुम्हारे सतरंगी पंखों को देखती रहे दुनिया
पर तुम तो किसी के कैनवास के रंगों में उतरकर
चित्र बन कर दीवारों पर टंग गई
और खामोश हो गई
--हम तो चाहते थे
तुम्हारे नयनों के गहरे समंदर में झांकना
झांककर सपने देखना
पर तुमने तो पलकें ही बंद कर दीं
और खामोश हो गई
इससे तो अच्छी हैं
वो आपस में लड़ती चिडिय़ां
चहकती चिडिय़ां कूदती, फुदकती चिडिय़ा
कम से कम वो आप की तरह
खामोश तो नहीं होती
वो प्यारी चिडिय़ा
(23,फरवरी, 2014. नई दिल्ली)
Wednesday, 9 October 2013
हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी
हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी
-जरूरी है हिमालयी पर्यटन पर नियंत्रण
-------हरीश लखेड़ा
उत्तराखंड की केदारघाटी की त्रासदी की चर्चा में हिमालय बहुत पीछे छूट गया है। केदारघाटी की त्रासदी से पैदा जख्मों को भरने में तो लंबा समय लगेगा, लेकिन इससे मिले संदेश को हम देख नहीं पा रहे हैं। वह यह कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया कि हजारों खिलते चेहरे पलक झपकते ही शवों में बदल गये। इस त्रासदी में चर्चा सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित रह गइ है, जबकि यह मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है, बल्कि पूरे हिमालय का है।
उस हिमालय का, जिससे निकली गंगा-यमुना जैसे नदियां देश की लगभग ४० करोड़ आबादी की प्यास बुझाती हैं, खेतों में खड़ी फसलों के लिए पानी उपलब्ध करती हैं। वह हिमालय, जो साइबेरिया के मैदानों से आने वाली हड्डियों तक को गला देने वाली ठंडी हवाओं से हमें बचाता है। अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए कुख्यात चीन जैसे ड्रैगन को रोकता है। वह हिमालय जो सदियों से आध्यात्मिक तौर पर भारत समेत पूरे विश्व को आकर्षित करता रहा है। जिस की मिट्टी आज भी देवभूमि कहलाती है, लेकिन दुखद यह है कि अब हमने उसी हिमालयी क्षेत्र को दोहन का संसाधन मात्र मान लिया है। हिमालय को तो इस त्रासदी से बहुत पहले सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से लेकर पर्यटन और मनोरंजन के लिए हिमालय को चीरकर बनाए जा रहे होटलों व इमारतों ने जख्मी करना शुरू कर दिया था।
इस त्रीसदी में मारे गये लोगों की संख्या जो भी हो,लेकिन सवाल यह है कि एक ही समय पर आखिरकार लगभग एक लाख लोग उत्तराखंड की ऊपरी पहाडिय़ों में कैसे जुट गये। क्या किसी ने सोचा है कि हिमालयी क्षेत्रों में हर साल करोड़ों लोगों की बेतहाशा भीड़ क्यों और क्या करने जा रही है। मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक यही हाल है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में ही बीते साल लगभग पांच करोड़ सैलानी पहुंचे थे। इनमें धार्मिक और सामान्य दोनों तरह के पर्यटक शामिल हैं। अकेले उत्तराखंड में ही २.३१ करोड़ और हिमाचल प्रदेश में १.३२ करोड़ पर्यटक गये। जबकि पर्यावरण प्रेमी भी लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही मानव गतिविधियां ग्लेशियरों के लिए खतरा हैं। पर्यावरण व वन मंत्रालय संभालते हुए जयराम रमेश भी लगातार कहते रहे कि ग्लेशियरों को बचाना है तो हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्यूलेट यानी नियंत्रित करना होगा। उन्होंने हिमालयी राज्यों के इसलिए बाकायदा दिशा-निर्देश भी दिये थे।
जयराम से लगभग १७ साल पहले भी यह बात डा. नीतीश सेन कमेटी ने भी कही थी। तब कश्मीर घाटी में बाबा अमरनाथ यात्रा के दौरान आई त्रासदी के कारण ३०० तीर्थ यात्री मारे गये थे। तब के प्रधानमंत्री एचडी देवगौैडा की गठित सेन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्युलेट करने की जरुरत है। हालांकि धार्मिक चश्मा पहने लोगों की दलील होती है कि अपने ही देश में धाॢमक स्थलों में जाने पर रोक लगाना गलत है। उन्हें हिमालयी चश्मा पहनने की भी जरूरत है। सवाल किसी यात्रा पर रोक लगाने का नहीं है,सवाल सीमित संख्या में लोगों को भेजने का है। स्विट्जरलैंड का दौरा करने वाले लोग बता सकते हैं कि वहां एल्पस पर्वत जाने के लिए हर साल कोटा तय होता है और तय कोटे से ज्यादा एक भी आदमी नहीं जा सकता है। सेन कमेटी की रिपोर्ट का यह नतीजा हुआ कि अमरनाथ यात्रा तो कुछ हद तक नियंत्रित हो गई लेकिन उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में प्रदेश सरकार को तो यह भी जानकारी नहीं है कि वहां आपदा के दिन कितने लोग मौजूद थे।
चारधाम यात्रा के लिए हिंदू मान्यता रही है कि इसे जीवन के अंतिम पड़ाव में किया जाता है, क्योंकि पांडव भी अपनी अंतिम यात्रा में इसी राह से हिमालय गये थे, लेकिन आज शहरों से लोग हनीमून मनाने भी बदरीनाथ-केदारनााथ धाम चले जा रहे है। चूंकि केदारनाथ यात्रा धार्मिक यात्रा है, तो इसके धार्मिक पहलू का जिक्र करना जरूरी है। वे वहां कभी शांत नहीं रहे। धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव के केदारनाथ स्वरूप को बेहद हटी माना जाता है। प्रकृति के हिसाब से भी हिमालयी क्षेत्र में धरती के नीचे आज भी उथल-पुथल हो रही है। हिमालयी प्लेट हर साल तिब्बत प्लेट की तरफ खिसक रही है। धरती के सबसे नये पहाड़ हिमालयी क्षेत्र में धरती भी अशांत है। हटी स्वरूप में शिव ने पांडवों को केदारनाथ मेें दर्शन नहीं दिये। पौराणिक कथा है कि कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध जीतने के बाद पांडवों को इस बात पर ग्लानि होने लगी कि उन्होंने अपने ही बंधुओं की हत्या कर दी। प्रायश्चित करने के लिए वे भगवान शिव के दर्शन करने काशी गये। लेकिन भोलेनाथ ने उन्हें दर्शन नहीं दिये। शिव वहां से केदारनाथ चले गये। पांडव उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गये। पांडवों से छुपने के लिए शिव ने भैसा का रूप धर लिया, लेकिन भीम ने उन्हें पहचान लिया और पकडऩे की कोशिश की। इस पर शिव धरती में समाने लगे। जब तक भीम पकड़ते शिव शिला का रूप ले चुके थे और मात्र पिछला हिस्सा और पूछ ही रह पाई। बाद में पिथौरागढ़ के फलकेश्वर में उनकी पीठ और नेपाल के पशुपतिनाथ में मुहं प्रकट हुआ। इस कहानी का धार्मिक संदेश है साफ है कि हनीमून या सैर सपाटे के लिए केदारघाटी आने वालों को शिव के इस हटी व रौद्र रूप से रूबरू होने के लिए तैयार रहना ही होगा।
शिव उत्तराखंडी जीवन में हर पहलू में व्यापत हैं। वहां शादी ब्याह में कृष्ण के नहीं बल्कि शिव के गति जाए जाते हैं। केदार का अर्थ है क्यारी यानी वहां के सीढ़ीनुमा खेत। केदारनाथ वहां क्यारियों का देवता यानी मिट्टी का देवता भी हैं, लेकिन अपने इस ईष्ट देव के धाम को तबाह करने में उत्तराखंडी भी पीछे नहीं हैं। अब तो वहां उनकी अपनी सरकार है। इसके बावजूद मंदाकिनी की धारा की राह में भी बड़ी इमारतें बन गईं। पहाड़ को चीर कर होटल बनते चल गये। यह सब नेताओं-अफसरों और बिल्डरों की मिली भगत से हुआ है। किसी ने भी हिमालय की ङ्क्षचता नहीं की। जबकि उत्तराखंडियों से ज्यादा कर्नाटक मूल के जयराम रमेश ज्यादा चिंतित दिखते थे। जयराम ने पर्यावरण व वन मंत्री रहते हुए मुख्यमंत्रियों को दिशा-निर्देश देकर कहा था कि पहाड़ों पर सैलानियों की लगातर बढ़ती भीड़ ने हिमालयी ग्लेशियरों को भारी खतरा पैदा कर दिया है। इन निर्देशों में साफ तौर पर कहा गया था कि हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों, गंगोत्री जैसे ग्लेशियरों तथा वन अभयारण्यों में सीमित संख्या में ही पर्यटक भेजे जाने चाहिए। ग्लेशियरों के पास प्लास्टिक समेत सभी कचरा एकत्रित करने के पुख्ता इंतजाम करने को कहा गया था।
दूसरी तरफ हिमालयी राज्यों की स्थिति यह यह कि वे देसी-विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए नई-नई स्कीमों का ऐलान तो करते रहते है,लेकिन उस हिसाब से मजबूत बुनियादी ढांचा तैयार नहीं करते हैं। जबकि यह बात भी सामने आ चुकी है कि ग्रीन हाउस गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन से हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ रही है। पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कह चुकी है कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में वर्ष 1970 की तुलना में वर्ष 2030 तक औसत तापमान 1.7 से 2.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यह बात सभी जानते हैं कि ग्लेशियरों के पूरी तरह से समाप्त हो जाने से बारामासी नदियों में पानी नहीं होगा। नदियां सूख जाएंगी। यदि ग्लेशियर नहीं रहे तो फिर हिमालय भी नहीं बचेगा। इससे गंगा-यमुना समेत सभी हिमालयी नदियां भी एक दिन सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर भला हम और हमारी सभ्यता कैसे बची रहेगी।
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Monday, 24 December 2012
पहली बार रुपहले पर्दे पर उतरी राजुला मालूशाही की प्रेमगाथा
दिल्ली फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित पहली उत्तराखंडी फिल्म
हरीश लखेड़ा
नई दिल्ली, २२ दिसंबर(2012)। अब तक लोककथाओं, लोकगाथाओं और रंगमंच तक सिमटी उत्तराखंड की प्रसिद्ध 'राजुला-मालूशाहीÓ प्रेमगाथा पहली बार रुपहले पर्दे आई है। गढ़वाली-कुमाउंनी व हिंदी में साझा तौर पर बनी इस फिल्म को यहां दिल्ली फिल्म महोत्सव में जगह मिली है। शनिवार को यहां एनडीएमसी कनवेंशन सेंटर में इस फिल्म दिखाई गई।
राजुला-मालुशाही कथा सिर्फ लोकगाथा नहीं है, बल्कि यह इतिहास के पन्नों पर भी दर्ज है। १५वीं शताब्दी की ऐतिहासिक घटना पर आधारित यह लोकगाथा कुमांयु के बैराट के कत्यूरी राजकुमार मालूशाही और जौहार के शौका वंश की राजकुमारी राजुला की प्रेम कहानी है, जो उत्तराखंड के लोक चेतना व लोकसंस्कृति में आज भी जिंदा है।इस कथा के अनुसार राजुला व मालूशाही के जन्म से पहले ही शादी तय कर ली जाती हैै, दोनों बचपन से ही एक-दूसरे के सपने में आते हैं, इसके बावजूद दोनों का दुखद अंत होता है। यह लोकगाथा अब तक रंगमंच पर उतरी रही है, लेकिन इसे चित्रपट पर उतारने की कोशिश नहीं की गई। जबकि उत्तराखंडी सिनेमा अब तक तीन दशक का सफर पार कर चुका है। फिल्म के निर्माता मनोज चंदोला कहते हैं कि वे उत्तराखंड की इस अनूठी लोककथा को देश- दुनिया के सामने रखना चाहते थे, चूंकि शहरों में पली-बढ़ी पीढ़ी गढ़वाली-कुमाउंनी ज्यादा नहीं जानती है, इसलिए उन तक इस लोकगाथा को पहुंचाने के लिए फिल्म को हिंदी में बनाया गया। उत्तराखंडी फिल्मों के अभिनेता मदन हुकलाण इसे सार्थक प्रयास बताते हुए कहते हैं कि अभी जीतू बगड़वाल जैसी लोगगाथाओं को भी चित्रपट पर लाने का प्रयास होना चाहिए।
जौहार क्षेत्र के मुंस्यारी निवासी डा. एसएस पांगती की राजुला-मालूशाही को लेकर की रिसर्च से भी इस फिल्म के निर्माण में मदद मिली। उन्होंने राजुला-मालूशाही पर किताब लिखी है, इसमें लोकगाथा के सभी ४० रूप दर्ज हैं। उन्होंने फिल्म में काम भी किया है। पांगती ने कहा कि यह कहानी हमें अपने गौरवशाली इतिहास की याद दिलाती है। शनिवार को दिल्ली फिल्ममहोत्सव में प्रदर्शिन इस फिल्म को देखने के लिए केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा सांसद भगत सिंह कोश्यारी, सांसद प्रदीप टमटा, उत्तराखंड के दो मंत्री इंदिरा हृदयेश व मंत्री प्रसाद नैथानी तथा विपक्ष के नेता अजय भट्ट भी जमे रहे। कोश्यारी के अनुसार उन्होंने १९६२ के बाद व नैथानी ने २०साल बाद किसी हॉल में देखकर फिल्म देखी।
-----------(sabhar-Amar Ujala)
नई दिल्ली, २२ दिसंबर(2012)। अब तक लोककथाओं, लोकगाथाओं और रंगमंच तक सिमटी उत्तराखंड की प्रसिद्ध 'राजुला-मालूशाहीÓ प्रेमगाथा पहली बार रुपहले पर्दे आई है। गढ़वाली-कुमाउंनी व हिंदी में साझा तौर पर बनी इस फिल्म को यहां दिल्ली फिल्म महोत्सव में जगह मिली है। शनिवार को यहां एनडीएमसी कनवेंशन सेंटर में इस फिल्म दिखाई गई।
राजुला-मालुशाही कथा सिर्फ लोकगाथा नहीं है, बल्कि यह इतिहास के पन्नों पर भी दर्ज है। १५वीं शताब्दी की ऐतिहासिक घटना पर आधारित यह लोकगाथा कुमांयु के बैराट के कत्यूरी राजकुमार मालूशाही और जौहार के शौका वंश की राजकुमारी राजुला की प्रेम कहानी है, जो उत्तराखंड के लोक चेतना व लोकसंस्कृति में आज भी जिंदा है।इस कथा के अनुसार राजुला व मालूशाही के जन्म से पहले ही शादी तय कर ली जाती हैै, दोनों बचपन से ही एक-दूसरे के सपने में आते हैं, इसके बावजूद दोनों का दुखद अंत होता है। यह लोकगाथा अब तक रंगमंच पर उतरी रही है, लेकिन इसे चित्रपट पर उतारने की कोशिश नहीं की गई। जबकि उत्तराखंडी सिनेमा अब तक तीन दशक का सफर पार कर चुका है। फिल्म के निर्माता मनोज चंदोला कहते हैं कि वे उत्तराखंड की इस अनूठी लोककथा को देश- दुनिया के सामने रखना चाहते थे, चूंकि शहरों में पली-बढ़ी पीढ़ी गढ़वाली-कुमाउंनी ज्यादा नहीं जानती है, इसलिए उन तक इस लोकगाथा को पहुंचाने के लिए फिल्म को हिंदी में बनाया गया। उत्तराखंडी फिल्मों के अभिनेता मदन हुकलाण इसे सार्थक प्रयास बताते हुए कहते हैं कि अभी जीतू बगड़वाल जैसी लोगगाथाओं को भी चित्रपट पर लाने का प्रयास होना चाहिए।
जौहार क्षेत्र के मुंस्यारी निवासी डा. एसएस पांगती की राजुला-मालूशाही को लेकर की रिसर्च से भी इस फिल्म के निर्माण में मदद मिली। उन्होंने राजुला-मालूशाही पर किताब लिखी है, इसमें लोकगाथा के सभी ४० रूप दर्ज हैं। उन्होंने फिल्म में काम भी किया है। पांगती ने कहा कि यह कहानी हमें अपने गौरवशाली इतिहास की याद दिलाती है। शनिवार को दिल्ली फिल्ममहोत्सव में प्रदर्शिन इस फिल्म को देखने के लिए केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा सांसद भगत सिंह कोश्यारी, सांसद प्रदीप टमटा, उत्तराखंड के दो मंत्री इंदिरा हृदयेश व मंत्री प्रसाद नैथानी तथा विपक्ष के नेता अजय भट्ट भी जमे रहे। कोश्यारी के अनुसार उन्होंने १९६२ के बाद व नैथानी ने २०साल बाद किसी हॉल में देखकर फिल्म देखी।
-----------(sabhar-Amar Ujala)
Sunday, 25 November 2012
सात समंदर पार तक पहुंचा गायक नेगी व राणा का विवाद
सात समंदर पार तक पहुंचा गायक नेगी व राणा का विवाद
नेगी पर केंद्रित राणा के विवादित गीत में उलझा है उत्तराखंडी समाज-फेसबुक समेत सभी सोशल साइटों में उलझें हैं दोनों गायकों के समर्थक
-नेगी समर्थक उत्तराखंड के एक बड़े नेता पर उठा रहे हैं उंगली
--------हरीश लखेड़ा--------
(sabhar-- AMAR UJALA)
नई दिल्ली, २५ नवंबर। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी और युवा गायक गजेंद्र राणा के बीच का विवाद इस पहाड़ी प्रदेश की सीमाओं को लांघकर सात संमदर पार तक पहुंच गया है। मामला दिल्ली अथवा मुंबई तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया भर में फैले प्रवासी उत्तराखंडियों में भी इस मुद्दे पर चर्चा छिड़ गई है।
इस विवाद की जड़ में राणा का गाया वह गीत है जिसमें बगैर नाम लिए नरेंद्र नेगी को निशाना बनाया गया है। राणा अब इस की वीडियो भी बाजार में लाने की तैयारी में हैं।
इसमें एक बूढ़े गायक पर पैसे लेकर गीत गाने का आरोप लगाया गया है। इस गीत की सीडी बाजार में आते ही राणा पर नेगी समर्थकों का गुस्सा फूट पड़ा है, लेकिन राणा के समर्थक भी मैदान में कूद गये हैं। यह विवाद अब फेसबुक, यू ट्यूब से लेकर तमाम सोशल साटटों में छाया है। नेगी के समर्थक देहरादून के बाद अब दिल्ली समेत एनसीआर में राणा को कार्यक्रमों में बुलाने से रोकने के लिए एकजुट होने लगे हैं। इस पूरे प्रकरण में उत्तराखंड के एक नेता का नाम भी लिया जा रहा है। नेगी समर्थकों का आरोप है कि इस नेता के कहने पर ही राणा से यह गीत तैयार किया।
नेगी उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय गायक माने जाते हैं। उत्तराखंड आंदोलन से लेकर सरकार की जनविरोधी नीतियां, सभी जगह नेगी के गीतों की दमदार उपस्थिति रही है। एनडी तिवारी को लेकर उनका 'नौछमी नारायणÓ तथा रमेश पोखरियाल निशंक को लेकर 'कतगा खैलोÓ गीतों ने भी राजनीतिक तहलता मचाया। नेगी इसे अपनी छवि बदनाम करने की साजिश बताते हैं। उन्होंने कहा कि मामला जनता पर छोड़ दिया है, लेकिन यदि इसका वीडिया आया तो वे देखने के बाद अदालत का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं।
दूसरी ओर राणा अपने गीत पर कायम हैं। उन्होंने कहा कि संस्कृति की बात करने वाले इन लोगों ने ही विवाद शुरु किया। उनके कार्यक्रमों में हंगामा कराया गया। तिवारी व निशंक पर बेहूदा गीत रचने वाले अब अपने पर कटाक्ष होते ही तिलमिला गये हैं। राणा ने कहा मेरे 'मर्खुली बांदÓ व 'फुरकी बांधÓ का विरोध करने वालों ने 'थैला रेÓ गीत में ब्राह्मणों के कर्मकांड का मजाक क्यों बनाया। वे कहते हैं मेरे गीत आज युवा पीढ़ी की जुबान पर हैं, और वास्तव में वे नये लोगों को रास्ता नहीं देना चाहते हैं। वे इप मामले में किसी नेता के शामिल होने की बात से इनकार करते हैं।
बहरहाल, नेगी के समर्थन में उतरे दिल्ली के उद्यमी विनोद बछेती तो एनसीआर क्षेत्र में राणा के कार्यक्रमों के बहिष्कार के लिए सभी संस्थाओं को एकजुट करने में लगे हैं। कनाडा निवासी व पहली गढ़वाली फिल्म के निर्माता पारासर गौड़ हों या दिल्ली में रह रहे प्रसिदध लोकगायक चंद्र सिंह राही या देहरादून से गढ़वाली फिल्मों के हीरो व गीतकार मदन डुकलाण अथवा मुंबई के पत्रकार केशर सिंह बिष्ट , सभी कमोबेश यही कहते हैं कि इस विवाद उत्तराखंडी फिल्म उद्योग के हित में नहीं हैं। इससे उत्तराखंड की छवि खराब हो रही है।
Sunday, 8 April 2012
तीन दशक बाद भी पहचान के लिए मोहताज क्यों है उत्तराखंडी सिनेमा
हिलीवुड की फिल्में हैं मुंबईया फिल्मों की बी कॉपी!!!!
हरीश लखेड़ा
यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के वितरण समारोह में लगातार तीसरे साल जाने का मौका मिला। इस संस्था की इस बेहतरीन कोशिश के लिए बधाई, लेकिन समारोह के बाद यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिरकार उत्तराखंडी सिनेमा तीन दशक बाद भी अपनी पहचान के लिए माोहताज क्यों है। देश-दुनिया तो दूर खुद उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग से भी यह सिनेमा आज भी बहुत दूर है।
गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी गीतों की सीडी-वीसीडी तो घर-घर पहुंच चुकी हैं, लेकिन सिनेमा नहीं। शनिवार को मित्र मदन मोहन डुकलाण के फोन के बाद फिक्की ऑडिटारियम में यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड वितरण समारोह में कुछ समय तक रहा। इससे पहले एसियन विलेज व एयरफोर्स के ऑडिटारियम के कार्यक्रमों में भी शामिल हो चुका था। यह देखकर मन को बड़ा दुख हुआ कि इन कार्यक्रमों में उत्तराखंडी वुद्धिजीवी वर्ग देखने को नहीं मिला। एक कार्यक्रम के सह आयोजक तो एक नामी बिल्डर थे। यंग उत्तराखंड की मंशा पर मैं कोई उंगली नहीं उठा रहा हूं, लेकिन यह तो सोचना ही होगा कि आखिरकार हम इस तरह के कार्यक्रमों के लिए किस तरह के लोगों के कंधों का सहारा ले रहे हैं।
यह भी सोचना होगा कि मशहूर गायक नरेंद्र सिंह नेगी के बाद दूसरी पीढ़ी क्यों तैयार नहीं हो पा रही है। नेगी जी या एक-दो को छोड़ दें तो बाकी गायक जो कुछ परोस रहे हैं, क्या हम उसे अपना कह सकते हैं।? नहीं। वह हमारा गीत या संगीत नहीं है। इसलि, सोचना होगा कि हमारी संगीत किस लाइन पर जा रहा है। सुना है कि उत्तराखंडी सिनेमा का नामकरण हॉलीबुड और बॉलीवुड की तर्ज पर हिलीवुड कर लिया गया है, लेकिन तीन दशक बाद भी यह सिनेमा अपनी पहचान के लिए मोहताज है। मदन बता रहे थे कि हिलीवुड सिनेमा लगभग ४० करोड़ सालाना के टर्न ओवर तक पहुंच चुका है और सालाना लगभग एक दर्जन फिल्में भी बन रही हैं। फिल्मों से ज्यादा गढ़वाली, कुमाउंनी, जौनसारी आदि में सीडी व एलबम ज्यादा बन रहे हैं। हालांकि पायरेसी का काल साया इन फिल्मोंं पर भी मंडराता रहा पड़ा है, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखंडी समाज के उच्च व बुद्धिजीवी वर्ग में यह सिनेमा आज तक अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा है। वर्ष १९८३ में पारासर गौड ने गढ़वाली में ‘जग्वाल ’ फिल्म बनाकर उत्तत्तराखंडी सिनेमा की शुरुआत की,इसके बाद फिल्में आती और जाती रहीं,लेकिन वे अपना असर नहीं छोड़ पाईं।
दरअसल, इन फिल्मों में जो कुछ दिखाया जाता है वह ऐसा नहीं लगता कि हमारा है, इनसे अपनाअप नहीं दिखता है। जिस तरह से बंगाली सिनेमा ने अपनी धाक कायम की, उत्तराखंडी सिनेमा ऐसा कुछ नहीं कर पाया।
कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तराखंडी सिनेमा इंडस्टरी से जुड़े लोग ही नहीं चाहते कि उनकी कमियों को सामने लाए और वे इन फिल्मों को उच्च वर्ग या वुद्धिजीवी वर्ग से दूर रखते हैं।
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हिलीवुड की फिल्में हैं मुंबईया फिल्मों की बी कॉपी!!!!
हरीश लखेड़ा
यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के वितरण समारोह में लगातार तीसरे साल जाने का मौका मिला। इस संस्था की इस बेहतरीन कोशिश के लिए बधाई, लेकिन समारोह के बाद यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिरकार उत्तराखंडी सिनेमा तीन दशक बाद भी अपनी पहचान के लिए माोहताज क्यों है। देश-दुनिया तो दूर खुद उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग से भी यह सिनेमा आज भी बहुत दूर है।
गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी गीतों की सीडी-वीसीडी तो घर-घर पहुंच चुकी हैं, लेकिन सिनेमा नहीं। शनिवार को मित्र मदन मोहन डुकलाण के फोन के बाद फिक्की ऑडिटारियम में यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड वितरण समारोह में कुछ समय तक रहा। इससे पहले एसियन विलेज व एयरफोर्स के ऑडिटारियम के कार्यक्रमों में भी शामिल हो चुका था। यह देखकर मन को बड़ा दुख हुआ कि इन कार्यक्रमों में उत्तराखंडी वुद्धिजीवी वर्ग देखने को नहीं मिला। एक कार्यक्रम के सह आयोजक तो एक नामी बिल्डर थे। यंग उत्तराखंड की मंशा पर मैं कोई उंगली नहीं उठा रहा हूं, लेकिन यह तो सोचना ही होगा कि आखिरकार हम इस तरह के कार्यक्रमों के लिए किस तरह के लोगों के कंधों का सहारा ले रहे हैं।
यह भी सोचना होगा कि मशहूर गायक नरेंद्र सिंह नेगी के बाद दूसरी पीढ़ी क्यों तैयार नहीं हो पा रही है। नेगी जी या एक-दो को छोड़ दें तो बाकी गायक जो कुछ परोस रहे हैं, क्या हम उसे अपना कह सकते हैं।? नहीं। वह हमारा गीत या संगीत नहीं है। इसलि, सोचना होगा कि हमारी संगीत किस लाइन पर जा रहा है। सुना है कि उत्तराखंडी सिनेमा का नामकरण हॉलीबुड और बॉलीवुड की तर्ज पर हिलीवुड कर लिया गया है, लेकिन तीन दशक बाद भी यह सिनेमा अपनी पहचान के लिए मोहताज है। मदन बता रहे थे कि हिलीवुड सिनेमा लगभग ४० करोड़ सालाना के टर्न ओवर तक पहुंच चुका है और सालाना लगभग एक दर्जन फिल्में भी बन रही हैं। फिल्मों से ज्यादा गढ़वाली, कुमाउंनी, जौनसारी आदि में सीडी व एलबम ज्यादा बन रहे हैं। हालांकि पायरेसी का काल साया इन फिल्मोंं पर भी मंडराता रहा पड़ा है, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखंडी समाज के उच्च व बुद्धिजीवी वर्ग में यह सिनेमा आज तक अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा है। वर्ष १९८३ में पारासर गौड ने गढ़वाली में ‘जग्वाल ’ फिल्म बनाकर उत्तत्तराखंडी सिनेमा की शुरुआत की,इसके बाद फिल्में आती और जाती रहीं,लेकिन वे अपना असर नहीं छोड़ पाईं।
दरअसल, इन फिल्मों में जो कुछ दिखाया जाता है वह ऐसा नहीं लगता कि हमारा है, इनसे अपनाअप नहीं दिखता है। जिस तरह से बंगाली सिनेमा ने अपनी धाक कायम की, उत्तराखंडी सिनेमा ऐसा कुछ नहीं कर पाया।
कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तराखंडी सिनेमा इंडस्टरी से जुड़े लोग ही नहीं चाहते कि उनकी कमियों को सामने लाए और वे इन फिल्मों को उच्च वर्ग या वुद्धिजीवी वर्ग से दूर रखते हैं।
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Sunday, 16 October 2011
खंडूड़ी के क्षेत्र में १० साल से नहीं बन पाई है सड़क
मित्रो! आप ही बताइए अब किससे करें फरियाद
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल (अब कोटद्वार) जिला स्थित कलीगाड़ तल्ला के लिए रिखणीखाल से जाने वाली सड़क आज दस साल बाद भी नहीं बन पाई है। जबकि इस क्षेत्र के विधायक राज्य के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी ही हैं, जो देशभर में राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़कें बनाने के लिए मशहूर रहे हैं।
जानने लायक यह है कि कलीगाड़ तल्ला उस महान हस्ती स्व. लीलादत्त लखेड़ा उर्फ भगत जी का गांव है जिन्होंने वर्ष १९३०-३५ के दौरान अपना सर्वस्व दान कर वीरोंखाल से चखुलियाखाल तक लगभग ७२ किमी खच्चर रोड बनवाई थी, इस रोड पर पड़ने वाली नदियों पर झूले भी बनाए गये थे। इलाके के लोगों ने भी जोरशोर से श्रमदान किया था। भगत जी के प्रयासों से इस मार्ग पर कई जगह धर्मशालाएं भी बनावाई थीं।
आज उसी महान हस्ती का गांव पहुंचने के लिए ढाबखाल से लगभग १० किमी पैदल जाना होता है। रिखणीखाल से होकर सिद्धखाल,चुरानी, कोटनाली होकर यह रोड़ कलीगाड़ पहुंचनी थी और फिर वहां से दुधारखाल से आ रही रोड पर मिलना था। इस रोड को बनाने का काम राज्य गठन के बाद दूसरे मुख्यमंत्री बने भगत सिंह कोश्यारी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। आज भी १० साल पहले खुदी रोड के निशान दिख सकते हैं। कांग्रेस के विकास पुरुष कहलाने वाले नारायण दत्त तिवारी जब मुख्यमंत्री बने तो इस रोड का काम बंद कर दिया गया। तिवारी के कार्यकाल में इस रोड पर एक कुदाल तक नहीं चली।
पत्रकार होने के नाते मैंने इस रोड को बनवाने के लिए नारायट दत्त तिवारी की सरकार में लोक निर्माण मंत्री रही इंदिरा हृदयेश से बात की थी। उन्होंने दिल्ली स्थित उत्तराखंड निवास से मेरे सामने राज्य के लोक निर्माण विभाग के चीफ इंजीनियर से बात तो की, पर काम नहीं कराया। इसके बाद मैंने अपने क्षेत्र के विधायक व मुख्यमंत्री खंडूरी को निजी तौर पर पत्र भी दिया। यह पत्र १३.५०-२००५ को लिखा गया था, खंडूरी के हटने के बाद मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक से भी लिखित में सड़क बनवाने का अनुरोध किया लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा। अब समझ में नहीं आ रहा है कि खंडूरी से फिर के कहूं कि नहीं।
मित्रो, अब आप ही बताइए कि नेता लोग जनता का काम करने के लिए कैसे सुनते हैं।
----हरीश लखेड़ा
नई दिल्ली, www.himalayilog.com
फोन- 0968888029
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल (अब कोटद्वार) जिला स्थित कलीगाड़ तल्ला के लिए रिखणीखाल से जाने वाली सड़क आज दस साल बाद भी नहीं बन पाई है। जबकि इस क्षेत्र के विधायक राज्य के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी ही हैं, जो देशभर में राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़कें बनाने के लिए मशहूर रहे हैं।
जानने लायक यह है कि कलीगाड़ तल्ला उस महान हस्ती स्व. लीलादत्त लखेड़ा उर्फ भगत जी का गांव है जिन्होंने वर्ष १९३०-३५ के दौरान अपना सर्वस्व दान कर वीरोंखाल से चखुलियाखाल तक लगभग ७२ किमी खच्चर रोड बनवाई थी, इस रोड पर पड़ने वाली नदियों पर झूले भी बनाए गये थे। इलाके के लोगों ने भी जोरशोर से श्रमदान किया था। भगत जी के प्रयासों से इस मार्ग पर कई जगह धर्मशालाएं भी बनावाई थीं।
आज उसी महान हस्ती का गांव पहुंचने के लिए ढाबखाल से लगभग १० किमी पैदल जाना होता है। रिखणीखाल से होकर सिद्धखाल,चुरानी, कोटनाली होकर यह रोड़ कलीगाड़ पहुंचनी थी और फिर वहां से दुधारखाल से आ रही रोड पर मिलना था। इस रोड को बनाने का काम राज्य गठन के बाद दूसरे मुख्यमंत्री बने भगत सिंह कोश्यारी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। आज भी १० साल पहले खुदी रोड के निशान दिख सकते हैं। कांग्रेस के विकास पुरुष कहलाने वाले नारायण दत्त तिवारी जब मुख्यमंत्री बने तो इस रोड का काम बंद कर दिया गया। तिवारी के कार्यकाल में इस रोड पर एक कुदाल तक नहीं चली।
पत्रकार होने के नाते मैंने इस रोड को बनवाने के लिए नारायट दत्त तिवारी की सरकार में लोक निर्माण मंत्री रही इंदिरा हृदयेश से बात की थी। उन्होंने दिल्ली स्थित उत्तराखंड निवास से मेरे सामने राज्य के लोक निर्माण विभाग के चीफ इंजीनियर से बात तो की, पर काम नहीं कराया। इसके बाद मैंने अपने क्षेत्र के विधायक व मुख्यमंत्री खंडूरी को निजी तौर पर पत्र भी दिया। यह पत्र १३.५०-२००५ को लिखा गया था, खंडूरी के हटने के बाद मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक से भी लिखित में सड़क बनवाने का अनुरोध किया लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा। अब समझ में नहीं आ रहा है कि खंडूरी से फिर के कहूं कि नहीं।
मित्रो, अब आप ही बताइए कि नेता लोग जनता का काम करने के लिए कैसे सुनते हैं।
----हरीश लखेड़ा
नई दिल्ली, www.himalayilog.com
फोन- 0968888029
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