tag:blogger.com,1999:blog-20178168022598877702024-03-19T20:47:04.103-07:00KAFAL PAKO=काफल पाकोHARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-23724357790888681662014-02-23T01:35:00.003-08:002014-02-23T01:36:40.147-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #cc0000;"><span style="background-color: red;"><b><span class="fbPhotosPhotoCaption" data-ft="{"type":45,"tn":"*G"}" id="fbPhotoSnowliftCaption" tabindex="0"><span class="hasCaption"></span></span></b></span></span><br />
<div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_5309bfd7769fb7233449273">
<b><span style="color: blue;">ओस की नन्हीं बूदें</span> </b></div>
<div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_5309bfd7769fb7233449273">
<b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHnxGrfy2ZTZ1bB1t2wA8Pq_NyAuYGgJ8wI2VVY6jsp39uKt23WYM95XqMKhbr4S6oO4kN2TAFjdBTzMin7eL8SnvExyxynpe7NW4fcd-grw-U3KjsGdfOXayF4ngv3qGj_EUc5kPggCo/s1600/daw.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <span class="fbPhotosPhotoCaption" data-ft="{"type":45,"tn":"*G"}" id="fbPhotoSnowliftCaption" tabindex="0"><span class="hasCaption"></span></span></a></b><br />
<div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_5309bfd7769fb7233449273">
<b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHnxGrfy2ZTZ1bB1t2wA8Pq_NyAuYGgJ8wI2VVY6jsp39uKt23WYM95XqMKhbr4S6oO4kN2TAFjdBTzMin7eL8SnvExyxynpe7NW4fcd-grw-U3KjsGdfOXayF4ngv3qGj_EUc5kPggCo/s1600/daw.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span class="fbPhotosPhotoCaption" data-ft="{"type":45,"tn":"*G"}" id="fbPhotoSnowliftCaption" tabindex="0"><span class="hasCaption"><span style="color: red;">ओस की नन्हीं बूदें<br /> --<br /> पहले भी कहते थे हम <br /> मत करना ओस की नन्हीं बूंदे पकडऩे की कोशिश<br /> रहने देना उन्हें नन्हीं पत्तियों पर</span><span class="text_exposed_show"><span style="color: red;"><br /> बस दूर से ही देखते रहना<br /> --पर तुम थे कि माने नहीं<br /> चले गये पकडऩे ओंस की नन्हीं बूदें<br /> जो उड़ गई / बिखर गई/ हाथ में आने से पहले ही<br /> तुम्हारा नहीं/ सूरज की किरण का था उसे इंतजार</span><br /> (----New Delhi,22-02-2014)</span></span></span></a></b></div>
<b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHnxGrfy2ZTZ1bB1t2wA8Pq_NyAuYGgJ8wI2VVY6jsp39uKt23WYM95XqMKhbr4S6oO4kN2TAFjdBTzMin7eL8SnvExyxynpe7NW4fcd-grw-U3KjsGdfOXayF4ngv3qGj_EUc5kPggCo/s1600/daw.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span class="fbPhotosPhotoCaption" data-ft="{"type":45,"tn":"*G"}" id="fbPhotoSnowliftCaption" tabindex="0"><span class="hasCaption">
</span></span><span class="fbPhotoTagList" id="fbPhotoSnowliftTagList"><span class="fcg"></span></span> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHnxGrfy2ZTZ1bB1t2wA8Pq_NyAuYGgJ8wI2VVY6jsp39uKt23WYM95XqMKhbr4S6oO4kN2TAFjdBTzMin7eL8SnvExyxynpe7NW4fcd-grw-U3KjsGdfOXayF4ngv3qGj_EUc5kPggCo/s1600/daw.jpg" /></a> <span class="text_exposed_show"></span></b></div>
<span style="color: #cc0000;"><span style="background-color: red;"><b><span class="fbPhotoTagList" id="fbPhotoSnowliftTagList"><span class="fcg"></span></span></b></span></span></div>
HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-45676395810857285472014-02-23T01:25:00.002-08:002014-02-23T01:25:34.649-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<span style="color: red;"><b>और तुम खामोश हो गई----</b></span><br />
<br /><i><span style="color: blue;">हम तो चाहते थे <br />तुम टकराती रहो किनारों से किनारों से<br />गरजती रहो संमदर की लहरों की तरह<br /> गाती रहो गीत पहाड़ी नदी की तरह<br />गुनगुनाती रहो झरनों की तरह<br />पर तुम तो मैदानों में गंगा की तरह <br />चुप हो गई<br />खामोश हो गई<br /><br />--हम तो चाहते थे <br />उड़ती रहो, उड़ती रहो <br />तुम तितलियां की तरह बागवां में <br />तुम्हारे सतरंगी पंखों को देखती रहे दुनिया<br />पर तुम तो किसी के कैनवास के रंगों में उतरकर <br />चित्र बन कर दीवारों पर टंग गई <br />और खामोश हो गई<br />--हम तो चाहते थे <br />तुम्हारे नयनों के गहरे समंदर में झांकना <br />झांककर सपने देखना<br />पर तुमने तो पलकें ही बंद कर दीं<br />और खामोश हो गई<br />इससे तो अच्छी हैं <br />वो आपस में लड़ती चिडिय़ां <br />चहकती चिडिय़ां कूदती, फुदकती चिडिय़ा<br />कम से कम वो आप की तरह<br /> खामोश तो नहीं होती <br />वो प्यारी चिडिय़ा</span></i><br /><span style="color: red;">(23,फरवरी, 2014. नई दिल्ली)</span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="color: red;"></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ7a-j_qd9ac5ifxFFJzlaKIEwuQiS0MiNRBTqO5nUup9l7-kZXNdCQGeWfuezbDu2-ofWhJkzUz5AP5xQNJMRRLJ8o2MNahtE7AeuYl_AO8D-ZJJuR16WM8mRfx0uvjyy3UNQjIkLXs0/s1600/m1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ7a-j_qd9ac5ifxFFJzlaKIEwuQiS0MiNRBTqO5nUup9l7-kZXNdCQGeWfuezbDu2-ofWhJkzUz5AP5xQNJMRRLJ8o2MNahtE7AeuYl_AO8D-ZJJuR16WM8mRfx0uvjyy3UNQjIkLXs0/s1600/m1.jpg" height="320" width="211" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<a name='more'></a><br /></div>
HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-77475378772684113962013-10-09T07:51:00.003-07:002013-10-09T07:51:58.228-07:00हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: red;">हिमालयी दृष्टि से भी देखिए केदारघाटी</span><br />
<span style="color: lime;">-जरूरी है हिमालयी पर्यटन पर नियंत्रण</span><br />
<span style="color: red;">-------हरीश लखेड़ा</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">उत्तराखंड की केदारघाटी की त्रासदी की चर्चा में हिमालय बहुत पीछे छूट गया है। केदारघाटी की त्रासदी से पैदा जख्मों को भरने में तो लंबा समय लगेगा, लेकिन इससे मिले संदेश को हम देख नहीं पा रहे हैं। वह यह कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया कि हजारों खिलते चेहरे पलक झपकते ही शवों में बदल गये। इस त्रासदी में चर्चा सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित रह गइ है, जबकि यह मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है, बल्कि पूरे हिमालय का है। </span><br />
<span style="color: blue;">उस हिमालय का, जिससे निकली गंगा-यमुना जैसे नदियां देश की लगभग ४० करोड़ आबादी की प्यास बुझाती हैं, खेतों में खड़ी फसलों के लिए पानी उपलब्ध करती हैं। वह हिमालय, जो साइबेरिया के मैदानों से आने वाली हड्डियों तक को गला देने वाली ठंडी हवाओं से हमें बचाता है। अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए कुख्यात चीन जैसे ड्रैगन को रोकता है। वह हिमालय जो सदियों से आध्यात्मिक तौर पर भारत समेत पूरे विश्व को आकर्षित करता रहा है। जिस की मिट्टी आज भी देवभूमि कहलाती है, लेकिन दुखद यह है कि अब हमने उसी हिमालयी क्षेत्र को दोहन का संसाधन मात्र मान लिया है। हिमालय को तो इस त्रासदी से बहुत पहले सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से लेकर पर्यटन और मनोरंजन के लिए हिमालय को चीरकर बनाए जा रहे होटलों व इमारतों ने जख्मी करना शुरू कर दिया था।</span><br />
<span style="color: blue;">इस त्रीसदी में मारे गये लोगों की संख्या जो भी हो,लेकिन सवाल यह है कि एक ही समय पर आखिरकार लगभग एक लाख लोग उत्तराखंड की ऊपरी पहाडिय़ों में कैसे जुट गये। क्या किसी ने सोचा है कि हिमालयी क्षेत्रों में हर साल करोड़ों लोगों की बेतहाशा भीड़ क्यों और क्या करने जा रही है। मामला सिर्फ उत्तराखंड का नहीं है। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक यही हाल है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में ही बीते साल लगभग पांच करोड़ सैलानी पहुंचे थे। इनमें धार्मिक और सामान्य दोनों तरह के पर्यटक शामिल हैं। अकेले उत्तराखंड में ही २.३१ करोड़ और हिमाचल प्रदेश में १.३२ करोड़ पर्यटक गये। जबकि पर्यावरण प्रेमी भी लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही मानव गतिविधियां ग्लेशियरों के लिए खतरा हैं। पर्यावरण व वन मंत्रालय संभालते हुए जयराम रमेश भी लगातार कहते रहे कि ग्लेशियरों को बचाना है तो हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्यूलेट यानी नियंत्रित करना होगा। उन्होंने हिमालयी राज्यों के इसलिए बाकायदा दिशा-निर्देश भी दिये थे।</span><br />
<span style="color: blue;">जयराम से लगभग १७ साल पहले भी यह बात डा. नीतीश सेन कमेटी ने भी कही थी। तब कश्मीर घाटी में बाबा अमरनाथ यात्रा के दौरान आई त्रासदी के कारण ३०० तीर्थ यात्री मारे गये थे। तब के प्रधानमंत्री एचडी देवगौैडा की गठित सेन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को रेग्युलेट करने की जरुरत है। हालांकि धार्मिक चश्मा पहने लोगों की दलील होती है कि अपने ही देश में धाॢमक स्थलों में जाने पर रोक लगाना गलत है। उन्हें हिमालयी चश्मा पहनने की भी जरूरत है। सवाल किसी यात्रा पर रोक लगाने का नहीं है,सवाल सीमित संख्या में लोगों को भेजने का है। स्विट्जरलैंड का दौरा करने वाले लोग बता सकते हैं कि वहां एल्पस पर्वत जाने के लिए हर साल कोटा तय होता है और तय कोटे से ज्यादा एक भी आदमी नहीं जा सकता है। सेन कमेटी की रिपोर्ट का यह नतीजा हुआ कि अमरनाथ यात्रा तो कुछ हद तक नियंत्रित हो गई लेकिन उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में प्रदेश सरकार को तो यह भी जानकारी नहीं है कि वहां आपदा के दिन कितने लोग मौजूद थे।</span><br />
<span style="color: blue;">चारधाम यात्रा के लिए हिंदू मान्यता रही है कि इसे जीवन के अंतिम पड़ाव में किया जाता है, क्योंकि पांडव भी अपनी अंतिम यात्रा में इसी राह से हिमालय गये थे, लेकिन आज शहरों से लोग हनीमून मनाने भी बदरीनाथ-केदारनााथ धाम चले जा रहे है। चूंकि केदारनाथ यात्रा धार्मिक यात्रा है, तो इसके धार्मिक पहलू का जिक्र करना जरूरी है। वे वहां कभी शांत नहीं रहे। धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव के केदारनाथ स्वरूप को बेहद हटी माना जाता है। प्रकृति के हिसाब से भी हिमालयी क्षेत्र में धरती के नीचे आज भी उथल-पुथल हो रही है। हिमालयी प्लेट हर साल तिब्बत प्लेट की तरफ खिसक रही है। धरती के सबसे नये पहाड़ हिमालयी क्षेत्र में धरती भी अशांत है। हटी स्वरूप में शिव ने पांडवों को केदारनाथ मेें दर्शन नहीं दिये। पौराणिक कथा है कि कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध जीतने के बाद पांडवों को इस बात पर ग्लानि होने लगी कि उन्होंने अपने ही बंधुओं की हत्या कर दी। प्रायश्चित करने के लिए वे भगवान शिव के दर्शन करने काशी गये। लेकिन भोलेनाथ ने उन्हें दर्शन नहीं दिये। शिव वहां से केदारनाथ चले गये। पांडव उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गये। पांडवों से छुपने के लिए शिव ने भैसा का रूप धर लिया, लेकिन भीम ने उन्हें पहचान लिया और पकडऩे की कोशिश की। इस पर शिव धरती में समाने लगे। जब तक भीम पकड़ते शिव शिला का रूप ले चुके थे और मात्र पिछला हिस्सा और पूछ ही रह पाई। बाद में पिथौरागढ़ के फलकेश्वर में उनकी पीठ और नेपाल के पशुपतिनाथ में मुहं प्रकट हुआ। इस कहानी का धार्मिक संदेश है साफ है कि हनीमून या सैर सपाटे के लिए केदारघाटी आने वालों को शिव के इस हटी व रौद्र रूप से रूबरू होने के लिए तैयार रहना ही होगा। </span><br />
<span style="color: blue;">शिव उत्तराखंडी जीवन में हर पहलू में व्यापत हैं। वहां शादी ब्याह में कृष्ण के नहीं बल्कि शिव के गति जाए जाते हैं। केदार का अर्थ है क्यारी यानी वहां के सीढ़ीनुमा खेत। केदारनाथ वहां क्यारियों का देवता यानी मिट्टी का देवता भी हैं, लेकिन अपने इस ईष्ट देव के धाम को तबाह करने में उत्तराखंडी भी पीछे नहीं हैं। अब तो वहां उनकी अपनी सरकार है। इसके बावजूद मंदाकिनी की धारा की राह में भी बड़ी इमारतें बन गईं। पहाड़ को चीर कर होटल बनते चल गये। यह सब नेताओं-अफसरों और बिल्डरों की मिली भगत से हुआ है। किसी ने भी हिमालय की ङ्क्षचता नहीं की। जबकि उत्तराखंडियों से ज्यादा कर्नाटक मूल के जयराम रमेश ज्यादा चिंतित दिखते थे। जयराम ने पर्यावरण व वन मंत्री रहते हुए मुख्यमंत्रियों को दिशा-निर्देश देकर कहा था कि पहाड़ों पर सैलानियों की लगातर बढ़ती भीड़ ने हिमालयी ग्लेशियरों को भारी खतरा पैदा कर दिया है। इन निर्देशों में साफ तौर पर कहा गया था कि हिमालय के संवेदनशील क्षेत्रों, गंगोत्री जैसे ग्लेशियरों तथा वन अभयारण्यों में सीमित संख्या में ही पर्यटक भेजे जाने चाहिए। ग्लेशियरों के पास प्लास्टिक समेत सभी कचरा एकत्रित करने के पुख्ता इंतजाम करने को कहा गया था। </span><br />
<span style="color: blue;">दूसरी तरफ हिमालयी राज्यों की स्थिति यह यह कि वे देसी-विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए नई-नई स्कीमों का ऐलान तो करते रहते है,लेकिन उस हिसाब से मजबूत बुनियादी ढांचा तैयार नहीं करते हैं। जबकि यह बात भी सामने आ चुकी है कि ग्रीन हाउस गैसों के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन से हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ रही है। पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट कह चुकी है कि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में वर्ष 1970 की तुलना में वर्ष 2030 तक औसत तापमान 1.7 से 2.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यह बात सभी जानते हैं कि ग्लेशियरों के पूरी तरह से समाप्त हो जाने से बारामासी नदियों में पानी नहीं होगा। नदियां सूख जाएंगी। यदि ग्लेशियर नहीं रहे तो फिर हिमालय भी नहीं बचेगा। इससे गंगा-यमुना समेत सभी हिमालयी नदियां भी एक दिन सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएगी। फिर भला हम और हमारी सभ्यता कैसे बची रहेगी। </span><br />
<span style="color: blue;">----------------</span><br />
<div>
<br /></div>
</div>
HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-9338472451975229562012-12-24T04:11:00.000-08:002012-12-24T04:11:03.781-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: blue;">
<b><br /><span style="color: red;"><span><span style="background-color: #ea9999;"></span></span>पहली बार रुपहले पर्दे पर उतरी राजुला मालूशाही की प्रेमगाथा</span> </b></div>
<div style="color: blue;">
<b><span style="color: lime;">दिल्ली फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित पहली उत्तराखंडी फिल्म</span><br /><span style="color: red;"> </span></b></div>
<div style="color: blue;">
<b><span style="color: red;">हरीश लखेड़ा</span><br />नई दिल्ली, २२ दिसंबर(2012)। अब तक लोककथाओं, लोकगाथाओं और रंगमंच तक सिमटी उत्तराखंड की प्रसिद्ध 'राजुला-मालूशाहीÓ प्रेमगाथा पहली बार रुपहले पर्दे आई है। गढ़वाली-कुमाउंनी व हिंदी में साझा तौर पर बनी इस फिल्म को यहां दिल्ली फिल्म महोत्सव में जगह मिली है। शनिवार को यहां एनडीएमसी कनवेंशन सेंटर में इस फिल्म दिखाई गई।<br />राजुला-मालुशाही कथा सिर्फ लोकगाथा नहीं है, बल्कि यह इतिहास के पन्नों पर भी दर्ज है। १५वीं शताब्दी की ऐतिहासिक घटना पर आधारित यह लोकगाथा कुमांयु के बैराट के कत्यूरी राजकुमार मालूशाही और जौहार के शौका वंश की राजकुमारी राजुला की प्रेम कहानी है, जो उत्तराखंड के लोक चेतना व लोकसंस्कृति में आज भी जिंदा है।इस कथा के अनुसार राजुला व मालूशाही के जन्म से पहले ही शादी तय कर ली जाती हैै, दोनों बचपन से ही एक-दूसरे के सपने में आते हैं, इसके बावजूद दोनों का दुखद अंत होता है। यह लोकगाथा अब तक रंगमंच पर उतरी रही है, लेकिन इसे चित्रपट पर उतारने की कोशिश नहीं की गई। जबकि उत्तराखंडी सिनेमा अब तक तीन दशक का सफर पार कर चुका है। फिल्म के निर्माता मनोज चंदोला कहते हैं कि वे उत्तराखंड की इस अनूठी लोककथा को देश- दुनिया के सामने रखना चाहते थे, चूंकि शहरों में पली-बढ़ी पीढ़ी गढ़वाली-कुमाउंनी ज्यादा नहीं जानती है, इसलिए उन तक इस लोकगाथा को पहुंचाने के लिए फिल्म को हिंदी में बनाया गया। उत्तराखंडी फिल्मों के अभिनेता मदन हुकलाण इसे सार्थक प्रयास बताते हुए कहते हैं कि अभी जीतू बगड़वाल जैसी लोगगाथाओं को भी चित्रपट पर लाने का प्रयास होना चाहिए। <br />जौहार क्षेत्र के मुंस्यारी निवासी डा. एसएस पांगती की राजुला-मालूशाही को लेकर की रिसर्च से भी इस फिल्म के निर्माण में मदद मिली। उन्होंने राजुला-मालूशाही पर किताब लिखी है, इसमें लोकगाथा के सभी ४० रूप दर्ज हैं। उन्होंने फिल्म में काम भी किया है। पांगती ने कहा कि यह कहानी हमें अपने गौरवशाली इतिहास की याद दिलाती है। शनिवार को दिल्ली फिल्ममहोत्सव में प्रदर्शिन इस फिल्म को देखने के लिए केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा सांसद भगत सिंह कोश्यारी, सांसद प्रदीप टमटा, उत्तराखंड के दो मंत्री इंदिरा हृदयेश व मंत्री प्रसाद नैथानी तथा विपक्ष के नेता अजय भट्ट भी जमे रहे। कोश्यारी के अनुसार उन्होंने १९६२ के बाद व नैथानी ने २०साल बाद किसी हॉल में देखकर फिल्म देखी। <br />-----------(sabhar-Amar Ujala)<br /></b></div>
</div>
HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-81397393398739420342012-11-25T20:44:00.000-08:002012-11-25T20:45:04.547-08:00सात समंदर पार तक पहुंचा गायक नेगी व राणा का विवाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: red;">
सात समंदर पार तक पहुंचा गायक नेगी व राणा का विवाद</div>
<span style="color: blue;">नेगी पर केंद्रित राणा के विवादित गीत में उलझा है उत्तराखंडी समाज</span><br />
<span style="color: #cc0000;">-फेसबुक समेत सभी सोशल साइटों में उलझें हैं दोनों गायकों के समर्थक</span><br />
<span style="color: purple;">-नेगी समर्थक उत्तराखंड के एक बड़े नेता पर उठा रहे हैं उंगली</span><br />
<span style="color: red;">--------</span><span style="color: blue;">हरीश लखेड़ा<span style="color: red;">--------</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span style="color: red;">(sabhar-- AMAR UJALA) </span></span><br />
<br style="color: blue;" />
<span style="color: blue;">नई दिल्ली, २५ नवंबर। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी और युवा गायक गजेंद्र राणा के बीच का विवाद इस पहाड़ी प्रदेश की सीमाओं को लांघकर सात संमदर पार तक पहुंच गया है। मामला दिल्ली अथवा मुंबई तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया भर में फैले प्रवासी उत्तराखंडियों में भी इस मुद्दे पर चर्चा छिड़ गई है।</span><br />
<span style="color: blue;">इस विवाद की जड़ में राणा का गाया वह गीत है जिसमें बगैर नाम लिए नरेंद्र नेगी को निशाना बनाया गया है। राणा अब इस की वीडियो भी बाजार में लाने की तैयारी में हैं।</span><br />
<span style="color: blue;">इसमें एक बूढ़े गायक पर पैसे लेकर गीत गाने का आरोप लगाया गया है। इस गीत की सीडी बाजार में आते ही राणा पर नेगी समर्थकों का गुस्सा फूट पड़ा है, लेकिन राणा के समर्थक भी मैदान में कूद गये हैं। यह विवाद अब फेसबुक, यू ट्यूब से लेकर तमाम सोशल साटटों में छाया है। नेगी के समर्थक देहरादून के बाद अब दिल्ली समेत एनसीआर में राणा को कार्यक्रमों में बुलाने से रोकने के लिए एकजुट होने लगे हैं। इस पूरे प्रकरण में उत्तराखंड के एक नेता का नाम भी लिया जा रहा है। नेगी समर्थकों का आरोप है कि इस नेता के कहने पर ही राणा से यह गीत तैयार किया।</span><br />
<span style="color: blue;">नेगी उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय गायक माने जाते हैं। उत्तराखंड आंदोलन से लेकर सरकार की जनविरोधी नीतियां, सभी जगह नेगी के गीतों की दमदार उपस्थिति रही है। एनडी तिवारी को लेकर उनका 'नौछमी नारायणÓ तथा रमेश पोखरियाल निशंक को लेकर 'कतगा खैलोÓ गीतों ने भी राजनीतिक तहलता मचाया। नेगी इसे अपनी छवि बदनाम करने की साजिश बताते हैं। उन्होंने कहा कि मामला जनता पर छोड़ दिया है, लेकिन यदि इसका वीडिया आया तो वे देखने के बाद अदालत का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं।</span><br />
<span style="color: blue;">दूसरी ओर राणा अपने गीत पर कायम हैं। उन्होंने कहा कि संस्कृति की बात करने वाले इन लोगों ने ही विवाद शुरु किया। उनके कार्यक्रमों में हंगामा कराया गया। तिवारी व निशंक पर बेहूदा गीत रचने वाले अब अपने पर कटाक्ष होते ही तिलमिला गये हैं। राणा ने कहा मेरे 'मर्खुली बांदÓ व 'फुरकी बांधÓ का विरोध करने वालों ने 'थैला रेÓ गीत में ब्राह्मणों के कर्मकांड का मजाक क्यों बनाया। वे कहते हैं मेरे गीत आज युवा पीढ़ी की जुबान पर हैं, और वास्तव में वे नये लोगों को रास्ता नहीं देना चाहते हैं। वे इप मामले में किसी नेता के शामिल होने की बात से इनकार करते हैं।</span><br />
<span style="color: blue;">बहरहाल, नेगी के समर्थन में उतरे दिल्ली के उद्यमी विनोद बछेती तो एनसीआर क्षेत्र में राणा के कार्यक्रमों के बहिष्कार के लिए सभी संस्थाओं को एकजुट करने में लगे हैं। कनाडा निवासी व पहली गढ़वाली फिल्म के निर्माता पारासर गौड़ हों या दिल्ली में रह रहे प्रसिदध लोकगायक चंद्र सिंह राही या देहरादून से गढ़वाली फिल्मों के हीरो व गीतकार मदन डुकलाण अथवा मुंबई के पत्रकार केशर सिंह बिष्ट , सभी कमोबेश यही कहते हैं कि इस विवाद उत्तराखंडी फिल्म उद्योग के हित में नहीं हैं। इससे उत्तराखंड की छवि खराब हो रही है।</span></div>
HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-74332406345397310292012-04-08T10:08:00.000-07:002012-11-26T19:55:05.626-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: blue;">तीन दशक बाद भी पहचान के लिए मोहताज क्यों है उत्तराखंडी सिनेमा</span><br />
<span style="color: magenta;"> <span style="background-color: lime; color: #cc0000;">हिलीवुड की फिल्में हैं मुंबईया फिल्मों की बी कॉपी!!!!</span></span><br />
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<span style="color: blue;">हरीश लखेड़ा</span><br />
<span style="color: magenta;">यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के वितरण समारोह में लगातार तीसरे साल जाने का मौका मिला। इस संस्था की इस बेहतरीन कोशिश के लिए बधाई, लेकिन समारोह के बाद यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिरकार उत्तराखंडी सिनेमा तीन दशक बाद भी अपनी पहचान के लिए माोहताज क्यों है। देश-दुनिया तो दूर खुद उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग से भी यह सिनेमा आज भी बहुत दूर है। </span><br />
<span style="color: magenta;">गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी गीतों की सीडी-वीसीडी तो घर-घर पहुंच चुकी हैं, लेकिन सिनेमा नहीं। शनिवार को मित्र मदन मोहन डुकलाण के फोन के बाद फिक्की ऑडिटारियम में यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड वितरण समारोह में कुछ समय तक रहा। इससे पहले एसियन विलेज व एयरफोर्स के ऑडिटारियम के कार्यक्रमों में भी शामिल हो चुका था। यह देखकर मन को बड़ा दुख हुआ कि इन कार्यक्रमों में उत्तराखंडी वुद्धिजीवी वर्ग देखने को नहीं मिला। एक कार्यक्रम के सह आयोजक तो एक नामी बिल्डर थे। यंग उत्तराखंड की मंशा पर मैं कोई उंगली नहीं उठा रहा हूं, लेकिन यह तो सोचना ही होगा कि आखिरकार हम इस तरह के कार्यक्रमों के लिए किस तरह के लोगों के कंधों का सहारा ले रहे हैं।</span><br />
<span style="color: magenta;">यह भी सोचना होगा कि मशहूर गायक नरेंद्र सिंह नेगी के बाद दूसरी पीढ़ी क्यों तैयार नहीं हो पा रही है। नेगी जी या एक-दो को छोड़ दें तो बाकी गायक जो कुछ परोस रहे हैं, क्या हम उसे अपना कह सकते हैं।? नहीं। वह हमारा गीत या संगीत नहीं है। इसलि, सोचना होगा कि हमारी संगीत किस लाइन पर जा रहा है। सुना है कि उत्तराखंडी सिनेमा का नामकरण हॉलीबुड और बॉलीवुड की तर्ज पर हिलीवुड कर लिया गया है, लेकिन तीन दशक बाद भी यह सिनेमा अपनी पहचान के लिए मोहताज है। मदन बता रहे थे कि हिलीवुड सिनेमा लगभग ४० करोड़ सालाना के टर्न ओवर तक पहुंच चुका है और सालाना लगभग एक दर्जन फिल्में भी बन रही हैं। फिल्मों से ज्यादा गढ़वाली, कुमाउंनी, जौनसारी आदि में सीडी व एलबम ज्यादा बन रहे हैं। हालांकि पायरेसी का काल साया इन फिल्मोंं पर भी मंडराता रहा पड़ा है, लेकिन इसके बावजूद उत्तराखंडी समाज के उच्च व बुद्धिजीवी वर्ग में यह सिनेमा आज तक अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा है। वर्ष १९८३ में पारासर गौड ने गढ़वाली में ‘जग्वाल ’ फिल्म बनाकर उत्तत्तराखंडी सिनेमा की शुरुआत की,इसके बाद फिल्में आती और जाती रहीं,लेकिन वे अपना असर नहीं छोड़ पाईं।</span><br />
<span style="color: magenta;">दरअसल, इन फिल्मों में जो कुछ दिखाया जाता है वह ऐसा नहीं लगता कि हमारा है, इनसे अपनाअप नहीं दिखता है। जिस तरह से बंगाली सिनेमा ने अपनी धाक कायम की, उत्तराखंडी सिनेमा ऐसा कुछ नहीं कर पाया। </span><br />
<span style="color: magenta;">कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तराखंडी सिनेमा इंडस्टरी से जुड़े लोग ही नहीं चाहते कि उनकी कमियों को सामने लाए और वे इन फिल्मों को उच्च वर्ग या वुद्धिजीवी वर्ग से दूर रखते हैं।</span><br />
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HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-71803597885307870922011-10-16T09:01:00.000-07:002011-10-16T09:01:16.395-07:00खंडूड़ी के क्षेत्र में १० साल से नहीं बन पाई है सड़क<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: red;">मित्रो! आप ही बताइए अब किससे करें फरियाद </span><br />
<br style="color: blue;" /><span style="color: blue;">उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल (अब कोटद्वार) जिला स्थित कलीगाड़ तल्ला के लिए रिखणीखाल से जाने वाली सड़क आज दस साल बाद भी नहीं बन पाई है। जबकि इस क्षेत्र के विधायक राज्य के मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी ही हैं, जो देशभर में राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़कें बनाने के लिए मशहूर रहे हैं।</span><br style="color: blue;" /><span style="color: blue;">जानने लायक यह है कि कलीगाड़ तल्ला उस महान हस्ती स्व. लीलादत्त लखेड़ा उर्फ भगत जी का गांव है जिन्होंने वर्ष १९३०-३५ के दौरान अपना सर्वस्व दान कर वीरोंखाल से चखुलियाखाल तक लगभग ७२ किमी खच्चर रोड बनवाई थी, इस रोड पर पड़ने वाली नदियों पर झूले भी बनाए गये थे। इलाके के लोगों ने भी जोरशोर से श्रमदान किया था। भगत जी के प्रयासों से इस मार्ग पर कई जगह धर्मशालाएं भी बनावाई थीं। </span><br style="color: blue;" /><span style="color: blue;">आज उसी महान हस्ती का गांव पहुंचने के लिए ढाबखाल से लगभग १० किमी पैदल जाना होता है। रिखणीखाल से होकर सिद्धखाल,चुरानी, कोटनाली होकर यह रोड़ कलीगाड़ पहुंचनी थी और फिर वहां से दुधारखाल से आ रही रोड पर मिलना था। इस रोड को बनाने का काम राज्य गठन के बाद दूसरे मुख्यमंत्री बने भगत सिंह कोश्यारी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। आज भी १० साल पहले खुदी रोड के निशान दिख सकते हैं। कांग्रेस के विकास पुरुष कहलाने वाले नारायण दत्त तिवारी जब मुख्यमंत्री बने तो इस रोड का काम बंद कर दिया गया। तिवारी के कार्यकाल में इस रोड पर एक कुदाल तक नहीं चली। </span><br style="color: blue;" /><span style="color: blue;">पत्रकार होने के नाते मैंने इस रोड को बनवाने के लिए नारायट दत्त तिवारी की सरकार में लोक निर्माण मंत्री रही इंदिरा हृदयेश से बात की थी। उन्होंने दिल्ली स्थित उत्तराखंड निवास से मेरे सामने राज्य के लोक निर्माण विभाग के चीफ इंजीनियर से बात तो की, पर काम नहीं कराया। इसके बाद मैंने अपने क्षेत्र के विधायक व मुख्यमंत्री खंडूरी को निजी तौर पर पत्र भी दिया। यह पत्र १३.५०-२००५ को लिखा गया था, खंडूरी के हटने के बाद मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक से भी लिखित में सड़क बनवाने का अनुरोध किया लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा। अब समझ में नहीं आ रहा है कि खंडूरी से फिर के कहूं कि नहीं।</span><br style="color: blue;" /><span style="color: blue;">मित्रो, अब आप ही बताइए कि नेता लोग जनता का काम करने के लिए कैसे सुनते हैं। </span><br />
<span style="color: #351c75;">----हरीश लखेड़ा</span><br style="color: #351c75;" /><span style="color: #351c75;"> नई दिल्ली, </span><a href="http://www.himalayilog.com/">www.himalayilog.com</a><br style="color: #351c75;" /><span style="color: #351c75;">फोन- 0968888029</span></div>HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-85890081307474150572011-05-26T23:19:00.000-07:002011-05-26T23:19:47.818-07:00घोसलों से नील गगन को उड़ते पंछी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><ul style="color: blue; text-align: justify;"><li><div style="text-align: justify;"><span style="color: red;">घोसलों से नील गगन को उड़ते पंछी</span><br style="color: red;" /><span style="color: red;">----हरीश लखेड़ा</span><br />
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बात उन लोगों की जो, पहाड़ी घोसलों से लगातार नीले गगन की ओर उड़ रहे हैं। कुछ लौट आते हैं, ज्यादातर नीले अंबर में गुम हो जा रहे हैं, लेकिन बड़ी संख्या में आज नीले अंबर में में चमक भी रहे हैं। <br />
पहाड़ की चोटी से पहला व्यक्ति कब शहरों में उतरा? इस सवाल का जवाब दे पाना बेहत कठिन है लेकिन,इसका कारण बताना आसान है। पहाड़ जैसी कठिन जिंदगी से निजात पाने के लिए वह दिल्ली समेत विभिन्न शहरों को निकला होगा। इस मौके पर मुझे वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र धस्माना का एक लेख याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली में गढ़वाल के लोगों का आना १९४० के आसपास शुरू <br />
हुआ और कुमायुं के लोग द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद आए। आजादी के बाद ता पहाड़ से लोगों के आने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक जारी है। वर्ष १९४० में गढ़वाल में दो बार जिलाधीश रहे पी मैसन बाद में दिल्ली में गृह और रक्षा मंत्रालयों में सचिव नियुक्त हुए। वे गढ़वाली लोगों की ईमानदारी से वाकिफ थे। गढ़वाली उन्हें भरोसेमंद और मेहनती लगे। इसलिए उन्होंने अपने मंत्रालयों में छोटी-मोटी नौकरियों में रख दिया। पंचकुइयां रोड और रानी झांसी मार्ग पर कुछ जमीन भी दिलवा दी। जहां आज गढ़वाल भवन है। फिर तो दिल्ली आना भी वहां के युवकों के सपने में शामिल हो गया। शुरू में लोगों ने यह नहीं सोचा कि वे यहां सदा के लिए बस जाएंगे। मन में गांव लौटने की बात दबी रही, बाद में अच्छी नौकरियों में जाने के बाद पहाड़ लौटने की बात याद तो रही लेकिन लौट नहीं पाए। संभवत: उन्हें अपने बच्चों का भविष्य यहां ज्यादा सुरक्षित नजर आने लगा था। धीरे-धीरे बदली दुनिया को देखते हुए अपने उत्तराखंड के लिए अलग राज्य बनाने का सपना भी बुनने लगे। कांग्रेस नेता हरिपाल रावत के पिताजी व भाकपा ने नेता दिवंगत कामरेड कल्याण सिंह रावत ने एक बार बताया था कि ५०-६० के दशक में दिल्ली में वृहत हिमाचल प्रदेश बनाए जाने के लिए भी यशवंत परमार, चौधरी शेरगंज जैसे वरिष्ठ नेताओं से उत्तराखंड के लोगों की बात होती रहती थी। वे उत्तराखंड के नेताओं को हिमाचल में शामिल होने की मांग करने की सलाह देते थे। तब पंजाब का विभाजन करके हिमाचल अलग प्रदेश बन गया था लेकिन, उत्तराखंड का मामला टलता रहा। तत्कालीन गृहमंत्री पं.गोविंद बल्लभ पंत से तब कुछ पहाड़ी लोग इस मांग को लेकर मिलने गये थे लेकिन, पंतजी ने लोगों को यह कहकर डांटकर दिया था कि अलग राज्य लेकर क्या करोगे, ठुलु (बड़े राज्य) उत्तरप्रदेश के साथ रहने में ही फायदा है। हेमवती नंदन बहुगुणा पर भी अलग राज्य बनवाने के लिए दबाव रहा लेकिन वे अलग पर्वतीय विकास बोर्ड से आगे नहीं बढ़ पाए। उत्तराखंड बनने पर मुख्यमंत्री बनने के लिए आतुर तथा तुरंत पहाड़ चले जाने वाले एनडी तिवारी तो अलग राज्य के धुर विरोधी थे और यह मांग उठाने वालों को चीनी एजेंट तक कहते थे। कामरेड रावत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की १९५२ में केरल में हुई पांचवीं कांग्रेस में पार्टी स्वयंसेवक के तौर पर शामिल हुए थे। सम्मेलन को याद करते हुए कामरेड रावत ने आगे कहा था कि तब पार्टी महासचिव पीसी जोशी थे और उसमें उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश के भीतर एक सब-स्टेट बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। लेकिन पहाड़ के लोग पूर्ण राज्य से कम पर सहमत नहीं थे। आखिरकार भटिंडा सम्मेलन में जब पार्टी महासचिव अजय घोष बने, तब उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ। यह प्रस्ताव कामरेड एनडी सुंदरियाल ने रखा था। बहरहाल, यह तो उस जमाने की बातें हैं जब पहाड़ के लोग दिल्ली में अपना आशियाना तलाश रहे थे। आज की तरह स्थापित नहीं हुए थे, तब सरकारी नौकरियों में चतुर्थ श्रेणी तक सीमित थे या बड़ी संख्या में घरेलू नौकर थे। जो बड़े अफसर बन चुके थे वे अपने को पहाड़ी कहलाने से कतराते थे, अपनी पहचान छुपाने की कोशिश करते थे। वे यह भी जताते थे कि उन्हें गढ़वाली- कुमाऊंनी-जौनसारी बोलनी नहीं आती है लेकिन वे अपने बोलने के लहजे से पहचान लिए जाते थे। वे अपने को देहरादून अथवा नैनीताल का निवासी बताते थे। यानी उन्हें खुद को <br />
पहाड़ी कहलाने में शर्म आती थी।उनकी यही भावना उनके बच्चों में भी भरती चली गई। संभवत: यही वजह है कि जब ९० के दशक में अलग राज्य आंदोलन से पहाड़ गरमा रहे थे और उसकी तपिश पूरे देश में महसूस की जा रही थी, दिल्ली में मैने देखा था कि जो पीढ़ी शहरों में ही जन्मी, पली व बढ़ी, उसका इस आंदोलन से कोई खास मोह नहीं था। लेकिन जो लोग पहाड़ों में पले बढ़े व दिल्ली आ गए वे ही ज्यादा सक्रिय थे। वही आज भी दिल्ली या अन्य शहरों में बसे अपने समुदाय की बजाए पहाड़ के लिए ज्यादा<br />
चिंतित रहते हैं। गांव, पट्टी आदि की समितियां बनाकर वहां की चिंता में लाल पीले होते रहते हैं। राज्य गठन के एक दशक बाद भी उत्तराखंडी लोगों की मानसिकता में ज्यादा बदलाव नहीं आ पाया है। हम यहां अपने लोगों की बजाए पहाड़ की चिंता में ज्यादा खोए रहते हैं। हमें इसकी चिंता नहीं है कि दिल्ली समेत एनसीआर में हमें राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तौर पर कहां हैं। हमें चिंता नहीं कि पालम हो या करावल नगर या बदरपुर या बुराड़ी, हमारे प्रवासी भाई-बंधु किस हालत में हैं। हमें चिंता नहीं कि राजधानी में इतनी बड़ी संख्या में मौजूदगी के बावजूद दिल्ली विधानसभा में हमारे समुदाय से मोहन सिंह बिष्ट अकेले विधायक हैं। नगर निगम में भी जगदीश ममगांई, हरीश अवस्थी आदि गिने चुने पार्षद हैं। मार्च,१० के दौरान गांधी पीस फाउंडेशन में आयोजित एक कार्यक्रम में उत्तराखंड के पूर्व मंत्री व टिहरी से कांग्रेस विधायक किशोर उपाध्याय की मौजूदगी में मैंने यही सवाल उठाया था कि आखिरकार हम कब तक पहाड़ की चिंता करते रहेंगे व शहरों में रह रहे अपने भाई-बंधुओं समेत अपनी चिंता करना कब शुरू करेंगे। मैंने सुझाव दिया था कि अलग राज्य बन जाने के बाद अब पहाड़ की चिंता वहां के चुने प्रतिनिधियों पर छोड़ देनी चाहिए। हमें उन पर दबाव बनाने का काम ही करना चाहिए और अब दिल्ली<br />
व एनसीआर में अपनी, अपने बच्चों की, अपने समाज की चिंता करनी चाहिए। हमें खना होगा कि प्रवासी लोग हर क्षेत्र में विकास कर रहे हैं कि नहीं। नौकरी ही नहीं बल्कि हमें यहां राजनेता, वकील, लेखक, पत्रकार, चिंतक, उद्यमी, कलाकार, खिलाड़ी से लेकर ऐसे लोग पैदा करने होंगे जिनकी आवाज को सरकारें भी सुनें। मानव विकास पर ज्यादा जोर देना होगा। क्या यह सही नहीं है कि आज २१वीं सदी में भी उत्तराखंडी समाज यादों में खोए रहने वाला समाज है। पहाड़ी प्रवासयों की दिल्ली हो या अन्य शहरों के <br />
कार्यक्रमों में हम हमेशा ही सिर्फ पहाड ़की याद में खोए दिखते हैं। जबकि दिल्ली की ही बात करें तो हमें राजधानी में प्रवास की आधी सदी हो चुकी है। दिल्ली सरकार पूर्वांचल के लोगों के लिए भोजपुरी अकादमी खोलने जा रही है। बिहार के महाबल मिश्रा दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विधानसभा होकर अब लोकसभा पहुंच चुके हैं, लेकिन हम कहां हैं। संसद की रिपोर्टिग करते हुए इन 10 वर्षों में मैने पहली बार गढ़वाली-कुमाऊंनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग सुनी। कांग्रेस सांसद सतपाल महाराज ने यह मांग करते हुए निजी विधेयक भी पेश किया। हमें अब इस तरह की मांगें करनी होंगी। राज्य बनने के बाद अब अपनी संस्कृति को बचाने के लिए पहल करनी होगी।बहरहाल, इन साठ वर्षों के सफर पर नजर डालें तो आइने की तरह अपनी उपलब्धियां साफ नजर आती हैं। आज मिजोरम के राज्यपाल ले. जनरल मदन मोहन लखेड़ा जी हैं। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी हों या विश्व सुंदरी मनस्वी ममगांई, सभी प्रवास के कारण ही शिखर तक पहुंचे। समाज के हर क्षेत्र में हमारी दमदार उपस्थिति है। जो लोग प्रवास को लेकर चिंतित रहते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि प्रवास से हमने पाया ज्यादा व खोया कम है। जमा पानी सड़ जाता है व बहता पानी हमेशा ताजा रहता है। यह अलग बात है कि पहाड़ में आज भी प्रवासियों को 'ठ्यकर्याÓ पुकारा जाता है। ठ्यकर्या इसलिए कह रहा हंूं कि उत्तराखंड आंदोलन के बाद दिल्ली के कई जिंदादिल युवक अपना राजनैतिक भविष्य तलाशने पहाड़ गये तो, वहां उन्हें इसी उपमा से संबोधित किया गया। मुझे याद है कि कांग्रेस नेता धीरेंद्र प्रताप का एक बयान हमें मिला था। उसमें यह कहा गया था कि उत्तराखंड में चुनाव की गूंज उठने पर प्रवासियों को पहाड़ में ठ्यकर्या कहा जा रहा है जबकि, दिल्ली समेत शहरों के प्रवासी उत्तराखंडियों ने भी अलग राज्य आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई है। हमने इसे प्रकाशिक भी किया था कि 'ठ्यकर्या नहीं हैं हम। ये वही <br />
धीरेन्द्र प्रताप हैं जिन्होंने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान २३ नवंबर १९८७ को लोकसभा की दर्शक दीर्घा में 'आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज्य दोÓ के नारे लगाए थे। बाद में उत्तराखंड को लेकर शायद ही कोई कार्यक्रम रहा हो जहां धीरेद्र प्रताप मौजूद न रहे हों।धीरेन्द्र भाई का यह कहना सौ फीसदी सही था कि दिल्ली,एनसीआर समेत प्रमुख शहरों के प्रवासी उत्तराखंडियों ने भी अलग राज्य आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई। दिल्ली के लोग यहां धरना-प्रदर्शन कर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब रहे। मुझे याद है कि १९९४ के जुलाई-अगस्त में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की आरक्षण नीति के खिलाफ जब पहाड़ गरमाने लगे थे, तो दिल्ली में भी विरोध के स्वर उभरने लगे थे। दिल्ली के जंतर-मंतर में युवा उत्साही युवकों ने धरना शुरू कर दिया था। १६अगस्त १९९४ से शुरू यह धरना राज्य गठन का विधेयक संसद में पारित हो जाने के बाद यानी १६ अगस्त २००० तक चला और एक इतिहास बना गया। उत्तराखंड क्रांतिदल और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने इसे शुरू तो किया लेकिन बाद में यह दिल्ली व पहाड़ के सभी आंदोलनकारी संगठनों का केंद्र बन गया। पहाड़ों के गरमाने से <br />
कुछ माह पहले दिल्ली नगर निगम के पूर्व आयुक्त बहादुर राम टमटा के नेतृत्व वाले उत्तराखंड विकास मंच ने फिरोजशाह कोटला मैदान से बहुत कामयाब रैली निकाली थी। टमटा जी अब हमारे बीच नहीं हैं। इसी दौरान तालकटोरा स्टेडियम में दिल्ली कांग्रेस के पर्वतीय सेल से संबंधित कांता प्रसाद बलोदी व उनके साथियों ने एक रैली आयोजित की थी, इसमें तत्कालीन गृह राज्यमंत्री राजेश पायलट व कांग्रेस नेता हरीश रावत मुख्य अतिथि थे। पायलट ने जैसे ही हिल काउंसिल का राग अलापना शुरू किया, लोगों ने फौरन विरोध शुरू कर दिया था। मैं विरोध करने वालों के ही पास बैठा था, उनका चेहरा याद रहा। बाद में जब जंतर-मंतर पर बेमियादी धरना शुरू हुआ तो वही चेहरे दिखे। उनमें एक थे जगदीश नेगी, जिनकी अगुआई वाले उत्तराखंड जनमोर्चा ने अलग राज्य के लिए दिल्ली में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। हरिपाल रावत के नेतृत्व वाले उत्तराखंड महासभा और उदयराम ढौंडियाल की अगुआई वाले उत्तराखंड लोकमंच समेत दिल्ली के लगभग २०० संगठनों ने दिल्ली में राज्य आंदोलन की इस लौ को जलाए रखा।<br />
पौड़ी से जब उत्तराखंड क्रांतिदल के शीर्ष नेता स्व. इंद्रमणि बड़ोनी समेत तीन भूख हड़तालियों को जबरन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाया गया तो, जनसत्ता में रहते हुए मैं उनका इंटरव्यू लेने गया। बडोनी ने मुझसे कहा था कि पहाड़ तो गरमा गया है अब दिल्ली वालों के कंधों पर भारी जिम्मेदारी है। <br />
वाकई, दिल्ली वालों ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया भी था। इस आंदोलन में सक्रिय लोगों के आंखों मेंं बस एक ही सपना तैरता था, वह था अगल राज्य का सपना। मुझे याद है कि देहरादून के डीबीएस कॉलेज में एमएससी(गणित) का छात्र रहते हुए पता नही कैसे मेरे सपनों में अलग राज्य एक सपना भी शामिल हो गया था। मेरे जैसे पता नहीं कितने लोग अपने सभी दुख-तकलीफों का हल अलग राज्य <br />
में देखने लगे थे। </div><div style="text-align: justify;">बहरहाल, जंतर-मंतर पर धरना शुरू होने के कुछ दिनों बाद फिरोजशाह तक रैली, निकाली गई। तब लोगों में आंदोलन को जिंदा रखने के लिए चंदा भी लिया गया। हर तरफ ऐसा माहौल था कि लोग हर संभव मदद के लिए आगे आने को तैयार रहते थे। मुझे याद है कि जंतर-मंतर की पहली रैली में एक फटेहाल व्यक्ति ने ५० रुपये का दिऐ थे जबकि, वह खुद टूटी चप्पल पहने था। सिर पर टोपी व पुराना हो चुका कोट था। पहाड़ से आया लगता था। यह थी भावना। पहाड़ में लोगों पर पुलिस-पीएसी के अत्याचारों से गैर-पहाड़ी लोग भी चिंतित दिखते थे। ऐसे ही वक्त में पहाड़ के वरिष्ठ पत्रकारों की प्रेस क्लब में एक बैठक हुई। इसमें मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र धस्माना, मृणाल पांडे, मंगलेश डबराल समेत दो दर्जन वरिष्ठ पत्रकारों के विचार सुनने मैं भी पहुंच गया था। वे सिर्फ चिंता जताने तक सीमित रह गये। मैने बोलने की अनुमति मांगी जो, मिल भी गई। मुझे जितना याद आ रहा है उसका निचोड़ यही है कि मैने उन्हें उलाहना देते हुए कहा कि आप लोगों को खुद को पहाड़ी कहलाने में पता नही क्यों शर्म आती है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर आप उस (भद्दी गाली) प्रधानमंत्री नरसिंहराव को मिलनेे क्यों नहीं जाते। मेरे शब्दों पर कड़ा तराज जताया गया। मैंने अपने शब्दों के लिए तुरंत खेद भी जता दिया,लेकिन मैं अपने मकसद में कामयाब हो चुका था। मैं वरिष्ठ पत्रकारों के मर्म पर चोट मार चुका ïथा। इसके बाद मैंने पहल कर उत्तराखंड के प्रति चिंतित पत्रकारों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन तैयार कराया जिसमें मुलायम सिंह से आंदोलनकारियों के साथ बातचीत करने की अपील की गई थी। उत्तराखंड के लिए राजघाट पर गैर-पहाड़ी लोगों का धरना भी मेरी पहल पर रखा गया था। जबकि दिल्ली नगर निगम के सफाई कर्मचारी यूनियनें कई बार कहते रही कि उत्तराखंड के नेताओं से बात कराओ हम आपके समर्थन में एकदिन दिल्ली की सफाई व्यवस्था चौपट कर देंगे। मीडिया के साथ ही समाज का हर वर्ग हमारे साथ खड़ा था।मेरे कहना का मतलब यह है कि जो जिस स्तर पर था वह आंदोलनकारियों की मदद के लिए सक्रिय हो गया था। लेकिन हुआ यह कि दिल्ली में सैकड़ों संगठन अस्तित्व में आ गए। ऐसे मे उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति भी बनी। जो कि उत्तराखंड क्रांतिदल के इंद्रमणि बडोनी के नेतृत्व में आंदोलन कर रही थी। जंतर-मंतर पर धरना देने वाला संगठन उत्तराखंड आंदोलन संचालन समिति से लेकर उत्तराखंड जन संघर्ष मोर्चा और उत्तराखंड जनता संघर्ष मोर्चा जैसे नाम बदलता रहा। इस धरना को शुरू करने व जिंदा रखने के लिए खीमा नंद खुल्वे,प्रताप साही व सूरज ङ्क्षसंह चौहान से लेकर अवतार रावत, सुरेश नौटियाल, राजेन्द्र शाह, देवसिंह रावत समेत कई युवकों को श्रेय जाता है। <br />
इधर, हुआ यह कि ज्यादातर संगठन अपनी-अपनी ठपली,अपना-अपना राग अलापने लगे थे। कुछ थे कि कांग्रेस व भाजपा के नेताओं को धिक्कारने में ही अपनी ऊर्जा खत्म कर दे रहे थे। सितंबर तक आंदोलन इस कदर चला कि समाचार पत्रों की पहली लीड यही खबर रही। दो अक्टूबर को मुजफ्फरनगर कांड व लालकिला रैली में आपस में भिड़ जाने के बाद आंदोलन की लौ कमजोर पडऩी शुरू हो गई। मुजफ्फरनगर कांड तो सभी को याद है लेकिन लालकिला रैली में पहाड़ी समाज की कमजोरी सामने आई। इसका जिक्र करना जरूरी समझता हूं। इससे जाना जा सकता कि हम खुद को देव भूमि के निवासी कहलाने वाले लोग, दूसरे समाजों के सामने बेहद अनुशासित लोग,देशभर में दूसरों के प्रति इज्जत का भाव रखने वाले लोग 'अपनों के प्रति कैसे निर्दयी भाव रखते हैं। जनसत्ता के तीन अक्टूबर,९४ के अंक में वरिष्ठ पत्रकार राजेश जोशी व मेरी साझा खबर 'उत्तराखंड आंदोलन अब अराजकता <br />
की अंधी गली में प्रकाशित हुई थी, जिसे लेकर बडोनी जी ने लगभग एक साल बाद मुझसे कहा था कि तेरी वह खबर आज भी मेरी जेब में है। जो इस तरह है।</div><div style="text-align: justify;">-नेतृत्वविहीन उत्तराखंड राज्य आंदोलन अब अराजकता की अंधी गली में कदम रख चुका है। पूरे एक दशक बाद उत्तर प्रदेश के पहाड़ों में शुरू हुआ जन उन्मेष आपस में लड़ रहे सन्निपाती और दिग्भ्रमित गुटों की वजह से देश की राजधानी में अपना संदेश पहुंचाने में बुरी तरह असफल हो गया। और इसके लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी राजनैतिक पार्टियां, उनकी डोर से बंधे छात्र नेता, उत्तराखंड क्रांतिदल के व्यतीत हो चुके रीढ़विहीन नेता और रिटायर होने के बाद भी वर्दी पहनने का शौक रखने वाले कुछ फौजी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने उत्तराखंड के लोगों की तकलीफों को पूरे पैनेपन के साथ उठाने की बजाए हजारों-हजार पहाडियों के सामने मंच हथियाने की कोशिश में एक-दूसरे की गर्दनें पकड़ी और लात-घूसे चलाए। चमोली और पिथौरागढ़ के सुदूर गांव सेअपनी खेती बाड़ी छोड़कर अपनी बात कहने राजधानी आया सीमांत पर्वतीय इस रस्साकशी में हाशिए पर घकेल दिया गया।उत्तराखंड के लोगों ने मंच पर गिद्ध खसोटी कर रहे नेताओं पर पत्थरों की अंधाधुंध बरसात कर रैलियों के इतिहास में पहली बार यह संदेश साफ शब्दों में दर्ज करवा दिया कि भीड़ को ढो लाने से ही नेतृत्व की गारंटी नहीं हो जाती, उसके लिए खुद नेता का नैतिक बजूद भी बुलंद होना चाहिए। अगर ऐसा होता तो पहाड़ की जनता के अकेले प्रवक्ता बने काशी सिंह ऐरी मंच के पीछे अपने समर्थकों के साथ एम्बैसडर कार में चुपचाप न छुपे बैठे रहते। ऐसा होता तो कांस्टिट्यूशन क्लब के पुरसुकून वातावरण में पहाडिय़ों के लिए खून बहाने का वादा करने वाले हरीश रावत, अफसरी चाल चलने वाले कृष्ण चन्द्र पंत,मुलायम सिंह की सरकार को बर्खास्त करने के लिए तमाम तरह के इस्तीफे का स्वांग करने बुजुर्ग नारायण दत्त तिवारी और अखंड भारत में 'उत्तरांचल कोसर्वश्रेष्ठ राज्य बनाने का दावा करने वाले मुरली मनोहर जोशी धृतराष्ट्रों की तरह <br />
अपने-अपने 'संजयों के मार्फत पहाडिय़ों की रैली पर नजर न रख रहे होते। बल्कि खुद उस भीड़के बीच मौजूद होने का साहस करते। इन सबसे ऊपर तो गढ़वाल के उस ७२साल के <span style="color: red;">बुजुर्ग इंद्रमणि बडोनी </span>का दर्जा है जो अपनी ढलती उम्र के बावजूद नीचे से चलरहे पत्थरों की बरसात में दोनों हाथ ऊपर उटाए मंच पर तब तक खड़े रहे जब तक किसी ने उनको पकड़कर पीछे नहीं खींच लिया। मंच पर उनकी यह अकेली मौजूदगी नीचे से पत्थर चला रहे लागों को शर्मसार करने के लिए काफी होनी चाहिए थी जो हताशा में ही सही अपने लिए लडऩे वाले बुजुर्ग को पहचाने से ही इनकार कर रहे थे। श्री बड़ोनी ने उत्तराखंड की मांग को लेकर पौड़ी में आमरण अनशन किया और आखिरकार उनको अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दाखिल कराना पड़ा था। बड़ी राजनैतिक पार्टियों के नेता और उनके लिए काम करने वाले कथित 'तटस्थ लोग पिछले कई दिनों से दो अक्तूबर की रैली मेंअपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए तिकड़म सोचने में लगे हुए थे। इस सिलसिले में दिल्ली में राजनीति कर रहे भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और उत्तराखंड क्रांति दल के नेताओं की कई कई बार बैठकें की गईं। शायद पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए पर्वतीय इलाके के लोग स्वतंत्र पहलकदमी पर राजधानी में रहली कर रहे थे और कोई भी इस सुनहरे अवसर को यूं ही हाथ से नहीं जान देना चाहता था। कई साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय छोड़ चुके अधेड़ 'छात्र नेताÓ दिल्ली में प्रेस कान्फ्रेंस करके नारे दे रहे थे। और खुद को ही आंदोलन की असली ताकत सिद्ध करने की राजनीति करने में लगे हुए थे।राजधानी की दो अक्तूबर की व्यापक रैली की घोषणा ऋषिकेश में काशीसिंह ऐरी की अगुआई वाली संचालन समिति की ओर से की गई। पर प्रचारित यह करवाया गया कि इस रैली की अपील छात्रों ने की। संचालन समिति ने रैली को सर्वदलीय बताया और शायद यही वजह थी कि 'सर्वदलीय खिचड़ीÓ की यह हांडी बीच मंच पर फूट गई। हालांकि दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना दे रहे लोगों में क्रांयतिदल और संघर्ष वाहिनी के लोग ज्यादा संख्या में हैं पर काशी सिंह ऐरी ने कल रात तक हुई बातचीत में बार बार यह बात कही कि मुझ पर कांग्रेस के लोगों को लाने <br />
का दबाव भी है इसलिए हरीश रावत आएं या न आएं पर लोकल कांग्रेसी नेता तो आएंगे ही।आज की रैली के लिए दिल्ली की संचालन समिति के पास सिर्फ खाने-पीने का बंदोबस्त करने का जिम्मा ही था। संचालन मंडल और प्रवक्ताओं के नाम भी मोटे तौर पर तय किये गए थे पर समिति इस व्यवस्था को बरकरार नहीं रख सकीं। एक बजे जब बुराड़ी से आंदोलनकारी जब लालकिले के पीछे वाले मैदान में पहुंचना शुरू हुए तो समिति के लोगों ने मंच पर हरी वर्दीधारी फौजियों और कुछ दूसरे लोगों को मौजूद पाया। ये फौजी अंग्रेजों जैसे हैट और सीने पर तमगे पहनकर दिल्ली आए थे। मंच से नीचे कई गुटों में लोग भी बंटे थे और उनमें भी कई बार कई कई तरह की मांगें उठाई जा रही थीं। मसलन, एक बार कहा गया कि मंच का नेतृत्व पूर्व सैनिकों को सौंप दिया जाए, एक वर्ग ने कहाकि नहीं कर्मचारी व छात्रों ने ही अब तक आंदोलन चलाया है- वही मंच का संचालन करेंगे।इसी बीच संयुक्त संघर्ष समिति के लोगों ने मंच पर मौजूद लोगों से कहा कि सब मिलजुलकर मंच संभालेंगे और कुमाऊं के छात्र नेता गिरिजा पाठक को कार्यक्रम संचालन का काम सौंपा गया। इधर मंच पर ४०-५० लोग चढ़ चुके थे और यह रेला थम नहीं रहा था। दिल्ली रैली का आह्वान करने वाले काशी सिंह ऐरी जैसे नेताओं की हिम्मत मंच तक आने की नहीं हो रही थी। एक वक्ता अपनी बात शुरू कर भी नहीं पाता था कि उसकी गर्दन पर हाथ धर कर उसे पीछे खींच लिया जाता था। कभी माइक पर अंग्रेजों जैसा हैट पहने वाले फौजी कब्जा कर लेते थे तो फिर उनके हाथ से छिनकर माइक किसी स्वनामधन्य छात्र नेता के हाथ में चला जाता था। यह अराजकता और खुली नौटंकी देखकर धीरे-धीरे नीचे बैठे लोगों की बौखलाहट बढऩे लगी। कुच महिलाओं ने यह कहकर मंच पर चढऩे की कोशिश की कि पर्वतीय महिलाएं आंदोलन में आगे रही हैं इसलिए मंच उनको सौंप दिया जाए। पर दिल्ली नगर निगम के चुनावों पर निगाहें गड़ाए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लोगों ने उनको धक्का मार कर पीछे धकेल दिया।उकता कर लोगों ने अपने ही नेताओं पर पत्थरों की बौछार शुरू कर दी। अपना-अपना सिर बचाकर कुछ उत्साही इधर उधर भागे और तभी किसी को शायद बुजुर्ग नेता इंद्रमणि बडोनी की याद आ गई। उनको मंच पर लाया गया और उनकी उपस्थिति से क्षणांश के लिए लगा कि मंच की गरिमा लौट आएगी। पर चूंकि श्री बडोनी उत्तराखंड क्रांति दल सेसंबंधित हैं इसलिए 'सर्वदलीय गुट के दूसरे लोगों को उनकी प्रभावशाली उपस्थिति जमी नहीं मंच पर फिर वही घमासान होने लगा और हताश होकर श्री बडोनी भी चुप हो गये। पत्थरों का एक रेला फिर आया लगाकि मंच खाली हो गया। उस वक्त दोनों हाथ उठाए श्वेत धवल दाड़ी वाले श्री बडोनी की बुलंदी चरम पर थी। पर काशी सिंह ऐरी पूरे वक्त मंच से काफी दूर एक कार में छुपे बैठे रहे। बेशुमार भीड़ को नेतृत्व देने लायक न उनके पास कुव्वत थी और न ही इच्छा शक्ति।इसी अफरातफरी में मंच पर चढ़े तीन चार वर्दी धारियों को चिल्ला-चिल्ला कर कहते सुना गया-' सब संसद कूच करो.... सब संद की आर चलो।Ó अब यह तय हो चुका था कि अपनी शांत प्रकृति के लिएहर जगह पहचाने जाने वाले उत्तराखंड के लोग अब किसी भी वक्त दिशाहीन हो सकते हैं और उनके दिशाहीन होने का अर्थ ही था- लाठी,गोली, आंसूगैस और पुलिस दमन। और एक बार मौका मिलने पर पुलिस ने फिर दमन में किसी बात की कसर नहीं छोड़ी। महात्मा गांधी मार्ग में पूर तरह से जलियावाला बाग का मंजर था। एक ओर यमुना, दूसरी ओर लालकिले की मोटी और ठंडी दीवारें और तीसरी ओर पुलिस की कठोर नाकेबंदी। लोगों का एक हिस्सा नारे लगाता हुए आगे बढ़ा तो पुलिस अफसर अपने तंत्रिका-तंत्र पर काबू खो बैठे और आंसू गैस के गोले धुंआधार छोड़े जाने लगे। लोगों को चारों ओर से घेर लिया गया और खदेड़ खदेड़ कर पीटा गया।उधर,मुजफ्फरनगर में मुलायम सिंह की पुलिस व पीएसी की राक्षसी हरकतों की खबरें भी सामने आ चुकी थीं। इसके बाद उत्तराखंड समाज निराशा में डूबता चला गया। चारोंं तरफ अंधकार ही नजर आता था। लेकिन फिर भी लोग आंदोलन की मशाल कोजलाए रखने की कोशिश करते रहे। पहाड़ से लोगों ने खून से लिखे पत्र सासंदों को भेजने शुरू कर दिये। मेरे पास भी दर्जनों पत्र पहुंचे। कुछ आज भी मेरे पास हैं। एक बार अल्मोड़ा के चौखुटिया से कुछ युवक खून से भरा घड़ा लेकर आए थे व इसे नरसिंह राव को देने वाले थे। इसी तरह जब २६ जनवरी आई तो दिल्ली के कुछ युवक-युवतियों ने राजपथ पर उत्तराखंड राज्य के लिए नारेबाजी <br />
भी की थी।उस दौरान खुफिया एजेंसिंयों के लोग जानकारी जुटाने के लिए हमसे ऐसे मिलते थे जैसे कि वे भी उत्तराखंडी हों। मुजफ्फरनगर कांड के बाद एक दफा खुफिया जवान ने मुझसे पूछा कि आंदोलनकारी अब क्या करने जा रहे हैं। मैंने सोचा इसे मजा चखाने का समय आ गया है। मैंने उससे कहा कि इस बार गांधी जयंती पर राजघाट पर बकरा काटेंगे। उसने पूछा भला क्यों? मैने कहा कि उत्तराखंड के लोग हिंसा मेंविश्वास नही करते हैं लेकिन दो अक्टूबर के अपमान को भूल भीनहीं सकते। इसलिए अङ्क्षहंसा के पुजारी की समाधि पर बलि दे कर सरकार की आखें खोलना चाहते हैं। बहरहाल, अलग राज्य तो बन गया लेकिन कई सवाल आज भी अनुत्तरित रह गये हैं। इस आंदोलन से एक फायदा यह हुआ कि हम अपनी छोटी पहचान यानी गढ़वाली-कुमाऊंनी से उठकर उत्तराखंडी बन गये। लेकिन राज्य बनने के बाद जो सांस्कृतिक जागृति का आंदोलन चलना चाहिए था वह शुरू भी नहीं हो पाया। मिजोरम के राज्यपाल जनरल मदन मोहन लखेड़ा जी ने एक बार मुझसे कहा था कि पहाड़ में तरक्की के अवसर नहीं थे इसलिए वहां से बाहर आना ही एक मात्र विकल्प था। बाहर आकर हमने तरक्की की की, यहां तक तो ठीक है लेकिन अगली पीढ़ी को वहां से लगाव नहीं रहा। जोहै भी वह नगण्य। न उन्हें वहां की भाषा आती है न संस्कृति से जुड़े हैं। दरअसल, उन्होंने पहाड़ देखाही नहीं। वे यहीं पले-बढ़े, इसलिए उनका पहाड़ से वैसा लगाव नहीं रहा जैसा हमारा रहा है। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। कमी हमारी है। हम बच्चों को उस माहौल में नहींले गये। हम तरक्की करने के फेर में इतने व्यस्त हो गए कि बच्चों को वहां की संस्कृति का ज्ञान नहीं करा पाए। लेकिन यह जरूरी है कि हमें नई पीढ़ी को पहाड़ से जोड़ रखना होगा। अपनी संस्कृति, भाषा, राति-रिवाज बचाने के लिए जरूरी है कि उनका पहाड़ से भावनात्कम लगाव बना रहे। जैसा कि उस पीढ़ी का है जो पहाड़ में पैदा हुई। महामहिम राज्यपाल लखेड़ा जी के इस सवाल का हम प्रवासियों को जवाब तलाशने का प्रयास करना चाहिए।<br />
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<span style="color: red;">परिचय-</span><br style="color: red;" /><br style="color: red;" /><span style="color: red;">पूरा नाम हरीश चन्द्र लखेड़ा</span><br />
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के लैंसडौन तहसील के तहत गांव कलीगाड़ तल्ला में हेड मास्टर श्री सीताराम लखेड़ा और स्व. श्रीमती सुरेशी देवी के सबसे छोटे पुत्र हरीश लखेड़ा २८ अगस्त १९८७ को रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचे। भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता का डिप्लोमा करने के बाद जनवरी १९९२ में जनसत्ता से जुड़े। २१अक्टूबर, १९९५ में राष्ट्रीय सहारा मे पहुंचे और दिल्ली की सिटी रिपोर्टिंग में चीफ रिपोर्टर भी रहे। फिर ३१मई, २००५ तक नेशनल ब्यूरो में रहने के बाद १जून, २००५ से अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में हैं। विशेष संवाददाता लखेड़ा, दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विधानसभा<br />
से लेकर पिछले दस साल से संसद की रिपोर्टिंग भी कर रहे हैं। इससे पहले गांवों की पाठशाला से पढ़कर डिग्री कालेज जयहरीखाल, लैंसडौन से बीएससी(पीसीएम) की डिग्री हासिल की, फिर देहरादून के डीबीएस कालेज से एमएससी (गणित) तक पढ़ाई करने के बाद दिल्ली चले आए। -दिल्ली का रास्ता- <br />
नाम से हिंदी में एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। नई दिल्ली की द्वारका कालोनी में निवास है।<br />
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</ul></div>HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2017816802259887770.post-65245963711938004932011-04-26T22:49:00.000-07:002011-04-26T22:49:52.643-07:00बुरांस की तरह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> काफल काको<br />
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बुरांस की तरह<br />
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जीवन तो है काफल की तरह<br />
सपने सजाना घोसले की तरह<br />
हम गाएंगे हिलांस की तरह<br />
तुम खिलते रहना बुरांस की तरह.<br />
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- अपने प्रथम कविता संग्रह ‘दिल्ली का रास्ता’ (फरवरी, २००२) की इन चार पंक्तियों से ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश कर रहा हूं। मेरे गांव में इन दिनों काफल पक गये होंगे। खट्टे-मीठे स्वाद वाला यह फल --काफल- कहलाता है। इसे याद करके अपना गांव, पहाड़ भी याद आ रहा है। बस आज इतना ही-----</div>HARISH CHANDRA LAKHERAhttp://www.blogger.com/profile/15339871954151933726noreply@blogger.com0